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= बृहत्कल्पभाष्यम्
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दोष पहले वर्णित किए हैं वे सारे दोष अकेले लोलुप व्यक्ति के भिक्षाटन करने पर होते हैं। १६००.नडमाई पिच्छंतो, ता अच्छइ जाव फिट्टई वेला।
सुत्तत्थे पडिबद्धो, ओसक्क-हिसक्कमाईया॥ भिक्षा के लिए प्रस्थित कुतूहली मुनि मार्गगत नट आदि के करतबों को देखता हुआ तब तक वहां रहता है कि भिक्षावेला अतिक्रांत हो जाती है। सूत्रार्थप्रतिबद्ध मुनि को यदि भिक्षाटन के लिए भेजा जाता है तो वह भिक्षा की अवेला या अतिक्रांत वेला में जाता है। ऐसी स्थिति में अवष्वष्कण- काल मर्यादा से पहले करना तथा अभिष्वष्कण-विवक्षित काल का संवर्धन करना आदि दोष होते हैं। १६०१.एयद्दोसविमुक्वं, कडजोगिं नायसीलमायारं।
गुरुभत्तिमं विणीयं, वेयावच्चं तु कारिज्जा॥ इसलिए उपरोक्त दोषों से विमुक्त मुनि को भिक्षाटन में व्याप्त करना चाहिए। जो कृतयोगी है, जिसका शील और आचार ज्ञात है, जो गुरु के प्रति भक्तिमान् है, जो विनीत हैऐसे शिष्य से यह वैयावृत्त्य-भिक्षाटन आदि कराना चाहिए। १६०२.साहति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे।
एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं वर्ल्डति गीयत्था॥ प्रियधर्मा गीतार्थ मुनि प्रक्षित-निक्षिप्त आदि एषणा दोषों तथा जिनकल्प-स्थविरकल्प संबंधी अभिग्रहों की जानकारी देते हैं। इस विधि से स्थापनाकुलों में भिक्षा ग्रहण करते हुए वे मुनि श्रद्धा को वृद्धिंगत करते हैं तथा द्रव्यों की भी वृद्धि करते हैं। १६०३.एसणदोसे व कए, अकए वा जइगुणे विकत्थिता।
कहयंति असढभावा, एसणदोसे गुणे चेव॥ एषणा दोष कृत है अथवा अकृत इस स्थिति में भी वे मुनि यतिगुणों की प्रशंसा करते हैं, अशठभाव से एषणादोषों को बताते हैं तथा साधुओं को प्रासुक भक्तपान देने से होने वाले गुणों का वर्णन करते हैं। १६०४.बालाई परिचत्ता, अकहितेऽणेसणाइगहणं वा।
न य कहपबंधदोसा, अह य गुणा साहिया होति॥ यदि गीतार्थ मुनि अभिग्रहविशेष की बात गृहस्थों को नहीं बताएंगे तो संभव है वे स्निग्ध-मधुर आहार देना ही बंद कर देंगे। इससे बालमुनि, ग्लान, वृद्ध आदि को वे प्रायोग्य पदार्थ नहीं मिलेंगे। यदि वे मुनि एषणादोष की अवगति नहीं देंगे तो अनेषणीय आदि का ग्रहण होते रहेंगे। इसमें कथाप्रबंधन १. पार्श्वस्थ श्रावकों को वे इस प्रकार कहते हैं-किसी हरिण के पीछे एक
लब्धक दौड़ता है, उसका पलायन श्रेयस्कर है।लब्धक का भी हरिण के पीछे दौड़ना श्रेय है। इसी प्रकार अनेषणीय ग्रहण करने से साधु
आदि दोष नहीं होते। प्रत्युत इस प्रकार कहने वाले गीतार्थ मुनियों के गुण से (बाल-वृद्ध के उपष्टंभ, गुरुभक्ति आदि) साधित होते हैं। १६०५.ठाणं गमणाऽऽगमणं, वावारं पिंडसोहिमुल्लोगं।
जाणताण वि तुज्झं, बहवक्खेवाण कहयामो॥ स्थान तीन प्रकार के होते हैं-आत्मोपघातवर्जित, प्रवचनोपघातवर्जित तथा संयमोपघातवर्जित। गीतार्थ भिक्षु यह बताना चाहते हैं कि भिक्षा दायक गृहस्थ तथा ग्राहक मुनि ऐसे स्थान पर स्थित होकर भिक्षा दे-ले। दायक भिक्षा लाने तथा भीतर गमन करते समय अथवा आगमन के समय उपयुक्त होकर गमनागमन करे। व्यापार अर्थात् कर्त्तन-कंडनपेषण आदि की सम्यग् जानकारी देनी चाहिए। वे मुनि गृहपति को उपरोक्त तथ्यों के साथ-साथ पिंडशुद्धि के लेशोद्देश-पिंडशुद्धि के उल्लोक-नियम-उपनियम भी बताए तथा उनसे कहे-तुम इस साधुधर्म को जानते ही हो, फिर भी तुम्हारे जीवन में बहुत विक्षेप आते हैं, इसलिए वह साधुधर्म विस्मृत हो सकता है, इसलिए हम तुम को पुनः स्मृति कराते हैं। १६०६.केसिंचि अभिग्गहिया,अणभिग्गहिएसणा उ केसिंचि।
मा हु अवण्णं काहिह, सव्वे वि हु ते जिणाणाए। पुनः उनसे कहे-कुछ मुनि अभिग्रहधारी होते हैं, जैसे जिनकल्पी मुनि और कुछ मुनि अभिग्रहरहित होते हैं, जैसे स्थविरकल्पी मुनि। उन दोनों की भक्तपान ग्रहण-विधि भिन्नभिन्न होती है। उसे देखकर तुम अवज्ञा मत करना। वे सभी जिनाज्ञा में हैं। १६०७.संविग्गभावियाणं, लुद्धगदिद्रुतभावियाणं च।
मुत्तूण खेत्त-काले, भावं च कहिंति सुद्धछ ।। श्रावकों के समक्ष इन दो के एषणा दोषों का कथन करना चाहिए-संविग्नभावितों के तथा लुब्धकदृष्टांत भावितों के। इन दोनों प्रकार के श्रावकों के समक्ष शुद्धउंछ का कथन करते हैं। तथा क्षेत्र-काल और भाव के प्रसंग में वे उन्हें अपवादपद की भी जानकारी देते हैं। १६०८.संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हत-दितयाणऽहियं।
आउरदिट्ठतेणं, तं चेव हियं असंथरणे॥ यदि प्रासुक-एषणीय आहार से संस्तरण हो सकता हो तो अशुद्ध देने वाले और लेने वाले दोनों के अहित-अपथ्य होता है। असंस्तरण की स्थिति में वही अशुद्ध अशन-पान
को पलायन करना उचित है। श्रावक को भी एषणीय-अनेषणीय का (अपवाद में) दान देना युक्त है।
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