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पहला उद्देशक
हितकारी हो जाता है। यहां आतुर-रोगी का दृष्टांत है। (रोगी के किसी अवस्था में अन्न-औषधि आदि अपथ्य हो जाती है और कभी वही पथ्य बन जाती है।) १६०९.संचइयमसंचइयं, नाऊण असंचयं तु गिण्हति।
__ संचइयं पुण कज्जे, निब्बंधे चेव संतरियं॥
प्रायोग्य द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-संचयिक और असंचयिक। संचयिक अर्थात् घृत, गुड़, मोदक आदि, तथा असंचयिक अर्थात दूध, दही, शालि आदि। असंचयिक द्रव्य स्थापनाकुलों में प्रचुरमात्रा में हैं-यह जानकर वे उसे ग्रहण करते हैं तथा संचयिक द्रव्य प्रयोजन उत्पन्न होने पर ही ग्रहण करते हैं। श्रावकों का अति आग्रह होने पर ग्लान आदि के प्रयोजन के बिना भी सामान्य मुनि भी उसे लेते हैं, परंतु सान्तरित-एकांतरित उसे ग्रहण करते हैं। १६१०.अहवण सद्धा-विभवे, कालं भावं च बाल-वुड्ढाई।
नाउ निरंतरगहणं, अछिन्नभावे य ठायंति॥ 'अहवण'-यह प्रकारान्तर द्योतक अव्यय है। प्रकारान्तर से कहा गया है-श्रावक की श्रद्धा, वैभव, काल और भाव को जानकर बाल-वृद्ध आदि मुनि परितृप्त हों-ऐसा सोचकर संचयिक द्रव्य भी निरंतर ग्रहण किया जा सकता है। वे प्रतिदिन उसे तब ले सकते हैं जब तक दायक का दानभाव अच्छिन्न रहता है। अवसर देखकर वे मुनि दानभाव को अच्छिन्न स्थिति में ही दीयमान संचयिक द्रव्य लेने का प्रतिषेध कर देते हैं। १६११.दव्वप्पमाण गणणा, खारिय फोडिय तहेव अद्धा य।
संविग्ग एगठाणे, अणेगसाहसु पन्नरस॥ स्थापनाकुलों में भिक्षा-ग्रहण की सामाचारी
स्थापनाकुलों के प्रत्येक गृह में पकने वाले द्रव्यों का प्रमाण, घृत आदि के पलों की गणना, क्षारित अर्थात् यहां व्यंजन कितनी मात्रा में होता है, स्फोटित-मिर्च, जीरक आदि 'कदभांड' से संस्कृत द्रव्य कितने प्रमाण में होते हैं तथा अद्धा अर्थात् किस प्रहर में यहां भिक्षावेला होती है-यह सारा जानकर संविग्नमुनि का एक संघाटक उस घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करे। अनेक साधुओं का वहां प्रवेश करने पर पन्द्रह दोष होते हैं। (आधाकर्म से अनिसृष्ट तक उदगम दोष होते हैं। १६१२.असणाइदव्वमाणे, दसपरिमिय एगभत्तमुव्वरइ।
सो एगदिणं कप्पइ, निच्चं तु अन्झोयरो इहरा॥ अशन आदि का द्रव्य प्रमाण जानना चाहिए। जहां दस व्यक्तियों के लिए भोजन उपस्कृत होता है वहां एक व्यक्ति के लिए भोजन शेष रह सकता है। वह एक दिन कल्प सकता
है। यदि दूसरे दिन आदि उसे ग्रहण करते हैं तो श्रावक उसे नित्यभक्त मानते हैं, अतः उसके निमित्त अध्यवपूरक करते हैं। १६१३.अपरिमिए आरेण वि, दसण्हमुव्वरइ एगभत्तट्ठो।
वंजण-समिइम-पिढे-वेसणमाईसु य तहेव।। जहां अपरिमित भोजन बनता है, वहां दस आदि मनुष्यों अथवा नौ-आठ आदि मनुष्यों के लिए बने भोजन में भी एक मनुष्य के योग्य भक्त बच जाता है। वह प्रतिदिन लेना कल्पता है। तथा व्यंजन, समितिमा-कणिका से निष्पन्न मंडक, पूपलिका आदि, पिष्ट-सत्तू आदि, वेसण-मिर्च, मसाले आदि-इनका परिमाण भी अशन जैसा ही समझना चाहिए। १६१४.सतिकालद्धं नाउं, कुले कुले ताहि तत्थ पविसंति।
ओसक्कणाइदोसा, अलंभे बालाइहाणी वा॥ जिस देश-काल में भिक्षा का जो समय है, उसे जानकर उस देश-काल में कुलों में भिक्षा के लिए प्रवेश करते हैं। अतिक्रांतकाल अथवा अकाल में प्रवेश करने पर प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता और उससे वृद्ध, बाल आदि मुनियों के हानि होती है, परिताप होता है। १६१५. एगो व होज्ज गच्छो,दोन्नि व तिन्नि व ठवणा असंविग्गे।
सोही गिलाणमाई, असई य दवाइ एमेव॥ यह एक गच्छ को लक्ष्य कर विधि बतलाई गई है। जहां दो-तीन आदि गच्छ हों, जहां संविग्न मुनि जिन कुलों में प्रवेश करते हों, वहां अन्य मुनि न जाएं। यदि जाते हैं तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। यदि वे ग्लान आदि के लिए जाते हैं और शुद्ध भक्तपान ग्रहण करते हैं तो कोई दोष नहीं। अन्यत्र द्रव पदार्थ न मिलने पर, वह द्रव पदार्थ असंविग्नभावित कुलों से उसे प्राप्त किया जा सकता है। १६१६.संविग्गमणुन्नाए, अइंति अहवा कुले विरिंचंति।
अन्नाउंछं व सहू, एमेव य संजईवग्गे॥ वहां वास्तव्य संविग्न मुनियों द्वारा अनुज्ञात होने पर वे आगंतुक संविग्न मुनि उन स्थापनाकुलों में जा सकते हैं। अथवा स्थापनाकुलों का विभाग कर देते हैं। यदि आगंतुक मुनि समर्थ होते हैं तो वे अज्ञात उंछ की गवेषणा करते हैं। संयतिवर्ग में भी यही विधि है। १६१७.एवं तु अन्नसंभोइआण संभोइआण ते चेव।
जाणित्ता निब्बंधं, वत्थव्वेणं स उ पमाणं ।। यह विधि अन्य सांभोगिक मुनियों की बताई गई है। जो सांभोगिक हैं, उनके आने पर वास्तव्य सांभोगिक मुनि भक्तपान लाकर देते हैं। अथवा श्रावकों का अति आग्रह जानकर
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