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=बृहत्कल्पभाष्यम्
वास्तव्य संघाटक उस आगंतुक संघाटक को लेकर उन कुलों में जाए। वास्तव्य संघाटक ही उसका प्रमाण होता है। १६१८.असइ वसहीए वीसु, रायणिए वसहि भोयणाऽऽगम्म।
असहू अपरिणया वा, ताहे वीसुंऽसहू वियरे॥ विस्तीर्ण वसति के अभाव में, अन्य पृथक् वसति में स्थित मुनियों में, आगंतुक अथवा वास्तव्य मुनि रत्नाधिक हो तो उसकी वसति में अवम रात्निक उसको भोजन कराए। यदि एक या दोनों गच्छों में साधु असहिष्णु अथवा अपरिणत हों तो दोनों गच्छों के आचार्यों को पृथक् वसति में भोजन कराए। (यह दो गच्छो की विधि बतलाई गई है।) १६१९.तिण्हं एक्केण सम, भत्त8 अप्पणो अवहूं तु।
पच्छा इयरेण समं, आगमण विरेगु सो चेव॥ एक वास्तव्य आचार्य हो। दो आगंतुक आचार्य आने पर जो रत्नाधिक हो उसके वैयावृत्तकर साधु के साथ वास्तव्य आचार्य का वैयावृत्तकर साधु जाए और आगंतुक के लिए श्राद्धकुलों से पूरा आहार और स्वयं के लिए आधा आहार लाए। तदनन्तर दूसरे आगंतुक आचार्य के वैयावृत्तकर साधु को लेकर जाए और पूर्ववत् मात्रा में ग्रहण करे। यदि तीनचार-पांच आदि आचार्यों का आगमन हो तो इसी प्रकार विभाग करे। १६२०.अतरंतस्स उ जोगासईए इयरेहिं भाविए विसिउं।
अन्नमहाणसुवक्खड, जं वा सन्नी सयं भुंजे॥ ग्लान मुनि के लिए प्रायोग्य द्रव्य की अप्राप्ति होने पर इतर अर्थात् असंविग्नभावित कुलों में प्रवेश कर उस महानस में जाए जहां अध्यवपूरक आदि दोष रहित भोजन पक रहा हो अथवा 'सन्नी' अर्थात् श्रावक गृहपति स्वयं वहां भोजन करता हो, वहां से ग्लान प्रायोग्य आहार ग्रहण करे। १६२१.असतीए व दवस्स व,परिसित्तिय-कंजि-गुलदवाईणि।
अत्तट्ठियाइं गिण्हइ, सव्वालंभे विमिस्साई॥ यदि ग्लान के प्रायोग्य द्रव-पानक की प्राप्ति न हो तो परिषिक्तपानक (गर्म पानी से दही के बर्तन आदि धोना), कांजी, गुड़ के बर्तन का पानक, इमली का पानक, जो गृहस्थ ने स्वयं के लिए बनाए हैं, उन्हें ग्लान के प्रयोजन के लिए ग्रहण करे। यदि ग्लान और गच्छ के प्रायोग्य पानक की अप्राप्ति हो तो विमिश्र अर्थात् असंविग्न श्रावकों के लिए अचित्तीकृत पानक लिया जा सकता है। १६२२.पाणट्ठा व पविट्ठो, विसुद्धमाहार छंदिओ गिण्हे।
अद्धाणाइ असंथरि, जाउं एमेव जदसुद्धं ॥ पानक के लिए प्रविष्ट मुनि को यदि गृहपति विशुद्ध
आहार ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करे, तो मुनि वह आहार ग्रहण करे। तथा अध्वनिर्गत साधुओं के लिए अथवा अवमौदर्य-अशिव आदि में पूरा आहार प्राप्त न हो तो इसी प्रकार अर्थात् ग्लान के लिए ग्रहण करने की विधि से शुद्ध आहार की गवेषणा करे। उसकी प्राप्ति न हो तो अशुद्ध आहार भी ग्रहण कर सकता है। १६२३. इच्छा मिच्छा तहक्कारे,आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा।
पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव॥ दस प्रकार की सामाचारी यह है-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यिकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदना, निमंत्रणा और उपसंपदा। १६२४.सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेयणा कति जणा य।
थंडिल्ल वसहि किच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे॥ १६२५.ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य।
पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य॥ १६२६.भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य।
आयंबिल पडिमाओ, गच्छम्मि उ मासकप्पोउ। ये तीनों द्वार गाथाएं हैं। इनमें स्थविरकल्पिक मुनियों की सामाचारी के २७ द्वारों का उल्लेख हैं
१. श्रुत १०. उच्चार १९. अवधान २. संहनन ११. प्रस्रवण २०. वसति में कितने
जन रहेंगे? ३. उपसर्ग १२. अवकाश २१. भिक्षाचर्या ४. आतंक १३. तृणफलक २२. पानक ५. वेदना १४. संरक्षणता २३. लेपालेप ६. कितने जन? १५. संस्थापनता २४. अलेप ७. स्थंडिल १६. प्राभृतिका २५. आचाम्ल ८. वसति १७. अग्नि २६. प्रतिमा ९. कितना काल १८. दीप २७. मासकल्प।
इनमें से कुछेक की विस्तृत व्याख्या गाथा १६२७ से १६३३ तक हैं। १६३२वीं गाथा की टीका में शेष द्वारों की संक्षिप्त व्याख्या भी प्राप्त है। १६२७.ओहेण दसविहं पि य, सामायारिं न ते परिहवंति।
पवयणमाय जहन्ने, सव्वसुयं चेव उक्कोसे॥ स्थविरकल्पी मुनि सामान्यतः दसविध सामाचारी का परिहार नहीं करते। गच्छवासियों के जघन्यतः श्रुत है आठ प्रवचन माताएं और उत्कृष्ट है-सर्वश्रुतज्ञान अर्थात् चतुर्दशपूर्व। १६२८.सव्वेसु वि संघयणेसु होति धिइदुब्बला व बलिया वा।
आतंका उवसग्गा, भइया विसहंति व न व ति॥
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