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पहला उद्देशक =
स्थविरकल्पी सभी छहों संहननों में होते हैं। धृति से वे १६३४.खित्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए। दुर्बल अथवा बली-दोनों प्रकार के होते हैं। जब आतंक और
कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य॥ उपसर्ग उत्पन्न होते हैं तब उनको सहन करने की भजना १६३५.पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने उ नत्थि पच्छित्तं। है वे उन्हें सहन करते भी हैं और नहीं भी करते। सहन न
कारण पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए॥ कर सकने के कारण वे उसकी चिकित्सा करवाते हैं।
स्थितिद्वार के द्वार हैं१६२९.दुविहं पि वेयणं ते, निक्कारणओ सहति भइया वा। क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, ___ अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमज्जणं मोत्तुं॥ लिंग, लेश्या, ध्यान और गणना-इनकी स्थिति कहनी
वे दोनों प्रकार की वेदनाओं-आभ्युपगमिकी और चाहिए। अभिग्रह, प्रव्राजना, मुंडापना, मन से होने वाले पाप औपक्रमिकी को निष्कारण सहन करते भी हैं और नहीं भी का प्रायश्चित्त नहीं है, कारण तथा प्रतिकर्म में स्थिति, भक्तकरते। उनका वसति के प्रति ममत्व नहीं होता और न वे पान और पथ में भजना है। (इन सबका विवरण आगे हैं) उसका प्रमार्जन को छोड़कर परिकर्म ही करते हैं।
१६३६.पन्नरसकम्मभूमिसु, खेत्तऽद्धोसप्पिणीइ तिसु होज्जा। १६३०.तिगमाईया गच्छा, सहस्स बत्तीसई उसभसेणे। तिसु दोसु य उस्सप्पे, चउरो पलिभाग साहरणे।।
थंडिल्लं पि य पढम, वयंति सेसे वि आगाढे॥ क्षेत्र के संबंध में स्थविरकल्पी मुनि जन्म और सद्भाव स्थविरकल्पी मुनियों के गच्छ तीन-चार आदि पुरुष- से पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं। काल की अपेक्षा से वे प्रमाणवाले होते हैं। यह जघन्य परिमाण है। भगवान् अवसर्पिणी कालचक्र में जन्म और सद्भाव से तीसरे, चौथे ऋषभदेव के प्रथम गणधर ऋषभसेन के गच्छ का उत्कृष्ट और पांचवें-इन तीन अरकों में होते हैं और उत्सर्पिणी में परिमाण था बत्तीस हजार मुनियों का। स्थविरकल्पी मुनि जन्म से वे तीन अरकों-दूसरे, तीसरे और चौथे में तथा प्रथम स्थंडिल में जाते हैं। वह है-अनापात-असंलोक। सद्भाव से तीसरे और चौथे-इन दो अरकों में होते हैं। नो आगाढ़ कारण उत्पन्न होने पर शेष स्थंडिलों में भी जाते हैं। अवसर्पिणी और नो उत्सर्पिणी काल में जन्म और सद्भाव से १६३१.किच्चिर कालं वसिहिह, न ठंति निक्कारणम्मि इइ पुट्ठा। दुःषमसुषमा प्रतिभाग में होते हैं और संहरण की अपेक्षा
अन्नं वा मग्गंती, ठविंति साहारणमलंभे॥ चारों प्रतिभागों में होते हैं। वे चार हैं-सुषमसुषमाप्रतिभाग, 'तुम मुनि इस वसति में कितने काल तक ठहरोगे' इस सुषमप्रतिभाग, सुषमदुःषमाप्रतिभाग और दुःषमसुषमाप्रकार पूछने पर मुनि उस वसति में बिना कारण न रहे, प्रतिभाग। अन्य वसति की मार्गणा करे। अन्य. वसति न मिलने पर १६३७.पढम-बिइएसु पडिवज्जमाण इयरे उ सव्वचरणेसु। साधारण वचन कहे कि व्याघात न होने पर मास पर्यन्त ठहर नियमा तित्थे जम्मऽट्ठ जहन्ने कोडि उक्कोसे॥ सकते हैं और व्याघात होने पर कम या अधिक दिन भी रह १६३८.पव्वज्जाए मुहुत्तो, जहन्नमुक्कोसिया उ देसूणा॥ सकते हैं।
आगमकरणे भइया, ठियकप्पे अट्ठिए वा वि।। १६३२.एमेव सेसएस वि, केवइया वसिहिह त्ति जा नेयं। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से वे प्रथम चारित्र सामायिक में
निक्कारण पडिसेहो, कारण जयणं तु कुव्वंति॥ अथवा दूसरे चारित्र छेदोपस्थानीय चारित्र में होते हैं। इतर इसी प्रकार शेष द्वारों-उच्चार-प्रस्रवण आदि में भी अर्थात् पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से वे सभी चारित्रों में होते हैं। 'कितने दिन निवास करेंगे' इस द्वार की भांति ही समझना । नियमतः ये तीर्थ में होते हैं। उनका गृहीपर्याय जन्म से आठ चाहिए। निष्कारण इनमें भी प्रतिषेध है। कारण में यतना वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि। प्रव्रज्यापर्याय जघन्यतः अंतर्मुहूर्त करते हैं।
तथा उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटी। आगम अर्थात् अपूर्व१६३३.नियताऽनियता भिक्खायरिया पाणऽन्न लेवलेवाडं। श्रुताध्ययन के विषय में विकल्प है-वे करते भी हैं और नहीं ___ अंबिलमणंबिलं वा, पडिमा सव्वा वि अविरुद्धा॥ भी करते। वे स्थितकल्प अथवा अस्थितकल्प में होते हैं।
स्थविरकल्पी मुनि की भिक्षाचर्या नियत (कदाचित् (प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा तीन वेद और प्रतिपन्नक की आभिग्रहिकी), अनियत (कदाचित् अनाभिग्रहिकी), पान और अपेक्षा से अवेद भी।) अन्न लेपकृत अथवा अलेपकृत, आचाम्ल अथवा अनाचाम्ल १६३९.भइया उ दव्वलिंगे, पडिवत्ती सुद्धलेस-धम्मेहि। तथा सभी प्रतिमाएं अविरुद्ध हैं।
पुव्वपडिवन्नगा पुण, लेसा झाणे अ अन्नयरे।। १. वृत्ति में यतना विषयक विशेष जानकारी उपलब्ध है।
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