________________
-बृहत्कल्पभाष्यम्
हैं-जिस दिन क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गए हैं उसी दिन से प्रारंभ कर गुरु सागारिक के प्रतिबंध को निम्न विधि से न्यून करने लग जाते हैं। १५३९.उच्छू वोलिंति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडाओ।
वसहा जायत्थामा, गामा पव्वायचिक्खल्ला।। १५४०.अप्पोदगा य मग्गा, वसुहा वि य पक्कमट्टिया जाया। ____ अन्नोक्वंता पंथा, विहरणकालो सुविहियाणं॥
गुरु शरदकाल के आधार पर कहते हैं-इक्षु इतने बढ़ गए हैं कि वे अपनी वृति (बाड़) का भी अतिक्रमण कर रहे हैं। तुम्बियां जातपुत्रभांड अर्थात् पूर्णरूप से तुंबे हो चुके हैं। वृषभ बल संपन्न हो गए हैं। गांवों का कीचड़ सूख गया है। मार्ग का पानी भी सूख गया है। सारी पृथ्वी भी पक्व मिट्टी की भांति कठोर हो चुकी है। अन्यान्य पथिकों से मार्ग क्षुण्ण हो चुके हैं। अतः सुविहित मुनियों के लिए यह उत्तम काल है। (यह बात आचार्य शय्यातर के सुनते हुए कहते हैं। बार-बार इसको दोहराने से शय्यातर का स्नेहानुबंध कम हो जाता है। १५४१.आवासगकयनियमा, कल्लं गच्छामु तो उ आयरिया।
सपरिजणं सागरियं, वाहेउं दिति अणुसढि॥ आवश्यक-प्रतिक्रमण अनुष्ठान करने के नियम वाले वे आचार्य कल अर्थात् प्रभात में हम विहार कर जाएंगे यह मानकर प्रतिक्रमण करने के पश्चात् सपरिवार शय्यातर को बुलाकर अनुशिष्टि-धर्मकथा करते हैं। १५४२.पव्वज्ज सावओ वा, सणसड्डो जहन्नओ वसहिं।
जोगम्मि वट्टमाणे, अमुगं वेलं गमिस्सामो॥ धर्मकथा सुनकर शय्यातर अथवा अन्य सदस्य प्रव्रज्या ग्रहण कर सकता है अथवा श्रावक या दर्शनश्राद्ध-अविरतसम्यकदृष्टि हो सकता है। इतना भी न करने पर जघन्यतः उसे साधुओं को वसति-दान देने की प्रेरणा देनी चाहिए। फिर उसे कहे जो योग वर्तमान है, उसमें अमुक वेला में हम यहां से विहार कर देंगे। १५४३.तदुभय सुत्तं पडिलेहणा य उग्गयमणुग्गए वा वि।
पडिच्छाहिगरण तेणे, नढे खग्गूड संगारो॥ वे सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी-दोनों सम्पन्न कर विहार करते हैं। क्षेत्र दूर है तो सूत्रपौरुषी करके, दूरतर हो तो पात्र- प्रत्युपेक्षणा करके, दूरतम हो तो सूर्य के उदित होते ही और यदि अतिदूर हो तो सूर्योदय से पहले ही चल पड़ते हैं। रात्री में विहरण करते समय प्रतिश्रय के बाहर परस्पर प्रतीक्षा करते हैं अन्यथा अधिकरण की संभावना होती है। पीछे आने वाले मुनि अग्रेतन साधुओं से विलग हो जाने के कारण उन्हें चोरों का उपद्रव हो सकता है। कोई खग्गूड़ अर्थात् आलसी
मुनि को कोई संकेत देकर उसे संघ से परामख कर विपरिणत कर देता है। १५४४.पडिलेहंत च्चिय वेंटियाउ काउं कुणंति सन्झायं।
चरिमा उग्गाहेडं, सोच्चा मज्झण्हेि वच्चंति॥ मुनि प्रभात में प्रत्युपेक्षा करते हुए ही वस्त्रों की विण्टिका कर लेते हैं। फिर चरमा-पादोनपौरुषी तक स्वाध्याय करते हैं। फिर पात्रों को बांधकर, अर्थ सुनकर मध्याह्न में विहार करते हैं। १५४५.तिहि-करणम्मि पसत्थे, णक्खत्ते अहिवईण अणुकूले।
घेत्तूण णिति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता॥ आचार्य के अनुकूल नक्षत्र और प्रशस्त तिथि तथा कारण में अक्ष अर्थात् गुरु के उपधि को लेकर वृषभ मुनि-गीतार्थ मुनि शकुनों की परीक्षा करते हुए वहां से विहरण करते हैं। १५४६.वासस्स य आगमणं, अवसउणे पट्ठिया नियत्ता य।
ओभावणा उ एवं, आयरिया मग्गओ तम्हा॥ वे प्रस्थित वृषभ मुनि वर्षा के आ जाने पर अथवा अपशकुन होने पर पुनः निवृत्त हो जाते हैं, उनकी अपभ्राजना नहीं होती। यदि आचार्य निवर्तित होते हैं तो लोग यह कहते हए अपभ्राजना करते हैं कि ये आचार्य सामान्य ज्योतिष की बात भी नहीं समझते हैं तो फिर दूसरी बात क्या समझेंगे। अतः आचार्य बाद में जाते हैं, पहले नहीं। १५४७.मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज्ज वडभे या।
एए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ णितस्स॥ शरीर और वस्त्रों से मलिन, जीर्ण परिधान वाला व्यक्ति, तैल आदि से अभ्यंगित शरीर वाला, कुत्ते का वाम पार्श्व से दक्षिण पार्श्व में जाना, कुब्ज और वामन व्यक्ति का सामने मिलना-ये क्षेत्र से प्रस्थित होने वाले व्यक्ति के लिए अप्रशस्त होते हैं, अपशकुन होते हैं। १५४८.रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेज्जा।
कासायवत्थ उद्धूलिया य जत्तं न साहति॥ रक्तपट (बौद्ध भिक्षु), चरक, तापस, रोगी, विकल (शरीर के अंगों से रहित), आतुर-विविध दुःखों से व्याकुल, वैद्य, काषायवस्त्रवाले, उद्धूलित (भस्मलिप्स शरीर वाले)क्षेत्र से प्रस्थित होते समय ये मिलते हैं तो यात्रा सफल नहीं होती। प्रस्तुत दो श्लोकों में अपशकुन बताए गए हैं। १५४९.नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसहो य।
भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई।। १५५०.समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दधिं ।
मीणं घंटं पडागं च, सिद्धमत्थं वियागरे। (प्रस्तुत दो श्लोकों में शुभशकुन बताए गए हैं।)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org