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पहला उद्देशक
अर्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना निर्व्याघातरूप से नहीं कृतघ्न हैं। शय्यातर अथवा अन्य किसी की वस्तु अपहृत या कर सकते। जो मध्य बल वाले साधु हैं, अथवा मध्यम क्षेत्र नष्ट हो जाने पर मुनियों पर चोर की शंका होती है तथा में जाते हैं। यहां दुष्ट अश्व का दृष्टांत है।'
वसति आदि का व्यवच्छेद भी हो जाता है। १५२८.पणपन्नगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा धरइ। १५३४.वसहीए वोच्छेदो, अभिधारिताण वा वि साहूणं ।
जइ तरुणा नीरोगा, वच्चंति चउत्थगं ताहे॥ पव्वज्जाभिमुहाणं, तेणेहि व संकणा होज्जा। पचपन तथा उससे अधिक आयु वाले मनुष्य की विशिष्ट वह शय्यातर सोचता है-अब आगे से मैं 'साधु' आहार के बिना बल की हानि होती है। इस आयु से पूर्व नामधारी व्यक्तियों को कभी वसति नहीं दूंगा। इस प्रकार मनुष्य जैसे-तैसे आहार से निर्वाह कर लेता है। अतः जो वसति का व्यवच्छेद हो जाता है। इससे प्रव्रज्याभिमुख तरुण मुनि हैं वे चौथी दिशा वाले क्षेत्र में जाते हैं।
व्यक्तियों के प्रति स्तेन की शंका हो सकती है। १५२९.जइ पुण जुन्ना थेरा, रोगविमुक्का व असहुणो तरुणा। १५३५.अविहीपुच्छणे लहुओ, तेसिं मासो उ दोस आणाई।
ते अणुकूलं खेत्तं, पेसिंति न यावि खग्गूडे। मिच्छत्त पुव्वभणियं, विराहण इमेहिं ठाणेहिं॥ यदि जीर्ण अर्थात् पचपन वर्ष से अधिक आयुवाले स्थविर पृच्छा दो प्रकार की होती है-विधिपृच्छा और अविधिमुनि तथा सद्यः रोगमुक्त तरुण मुनि, जो असहिष्णु हैं, उनको पृच्छा। अविधिपृच्छा करने पर आचार्य को लधुमास का अनुकूल क्षेत्र में भेजना चाहिए। जो 'खग्गूड'२ अर्थात् आलसी प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष, पूर्वकथित मिथ्यात्व और रसलोलुप हो उन्हें वहां नहीं भेजना चाहिए।
और इन स्थानों में विराधना होती है। १५३०.एग पणगऽद्धमासं, सट्ठी सुण-मणुय-गोण-हत्थीणं। १५३६.सहसा दटुं उग्गाहिएण सिज्जायरी उ रोविज्जा।
राइंदिएहिं उ बलं, पणगं तो एक्क दो तिन्नि। सागारियस्स संका, कलहे य सएन्झिखिसणया॥ क्षीण शरीर वाले कुत्ते एक दिन में, मनुष्य पांच दिन में, अविधिपृच्छा का स्वरूप यह है-उपकरणों को लेकर बैल पन्द्रह दिनों में, हाथी साठ दिनों में बल प्राप्त कर लेते विहार करने के लिए प्रस्थित होते हुए शय्यातर को पूछना हैं। जो वृद्ध आदि मुनि हैं उनको प्रथम क्षेत्र में एक पंचक, दो। कि हम विहार कर रहे हैं। अकस्मात उपकरणों को लेकर या तीन पंचक तक रखना चाहिए, फिर चौथे क्षेत्र में ले जाना प्रस्थित मुनियों को देखकर शय्यातरी रोने लग सकती है। चाहिए।
यह देखकर शय्यातर के मन में अनेक प्रकार की शंका हो १५३१.सागारिय आपुच्छण, पाहुडिया जह य वज्जिया होइ। सकती है। कलह होने पर पड़ोसिन आकर शय्यातरी की __ के वच्चंते पुरओ, उ भिक्खुणो उदाहु आयरिया॥ खिंसना कर सकती है।
क्षेत्रान्तर गमन से पूर्व शय्यातर को इस प्रकार पूछना १५३७.हरियच्छेअण छप्पइअथिच्चणं किच्चणं च पुत्ताणं। चाहिए जिससे प्राभृतिका-हरियाली के छेदन आदि का वर्जन
गमणं च अमुगदिवसे, संखडिकरणं विरूवं वा।। हो सके। गमन करते समय कौन आगे चले, भिक्षु अथवा यदि मुनि कहे-'हम अमुक दिन जाएंगे' तो यह भी आचार्य?
अविधिपृच्छा है। क्योंकि उस दिन बालक अथवा पुत्रवधूएं वहां १५३२.सागारिअणापुच्छण, लहुओ मासो उ होइ नायव्यो। हरित का छेदन कर सकती हैं अथवा परस्पर जूं आदि का
आणाइणो य दोसा, विराहण इमेहिं ठाणेहिं॥ थेच्चण उपमर्दन या किच्चण-कर्त्तन कर सकती हैं। वस्त्रों का १५३३. सागारिअपुच्छगमणम्मि बाहिरा मिच्छगमण कयनासी। प्रक्षालन कर सकती हैं। अथवा 'अमुक दिन हम जाएंगे' यह
अन्नस्स वि हिय-नटे, तेणगसंका य जं चऽन्नं। कहने पर शय्यातर आदि जीमनवार कर सकते हैं अथवा यदि शय्यातर को पूछे बिना साधु जाते हैं तो उन्हें एक विरूव अर्थात् भींत आदि को पोतना आदि कर सकते हैं। लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष १५३८.जत्तो पाए खेत्तं, गया उ पडिलेहगा ततो पाए। और इन स्थानों में विराधना होती है। शय्यातर सोचता है ये सागारियस्स भावं, तणुइंति गुरू इमेहिं तु॥ लोकधर्म से भी बाह्य हैं। इनका मिथ्यागमन है, ये कृतनाशी- शिष्य पूछता है-पूछने की विधि क्या है? आचार्य कहते
१. दुष्ट अश्व अर्थात् गर्दभ। उसे प्रचुर अन्न-पान मिलता था। वह कुछ ही
दिनों में दर्पित हो गया। कुंभकार उस पर बर्तन लादकर ले जाता। वह बीच मार्ग में मद से कूद-फांदकर उन बर्तनों को गिरा देता। कुंभकार ने उसको भोजन देना बंद कर दिया। वह दुर्बल हो गया। अब वह भार
वहन करने में असमर्थ था। कुंभकार उसे मध्यम आहार देने लगा। अब वह भार ढोने में समर्थ हो गया। उसका मद विलीन हो गया।
यही बात साधु के विषय में भी समझनी चाहिए। २. अलसाः स्निग्धमधुराहारलम्पटाः खग्गूडा उच्यन्ते। (टीका)
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