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________________ १५८ बृहत्कल्पभाष्यम् कहेंगे वैसे ही हम करेंगे। इस प्रकार कहने वाले मुनियों के १५२३. पढमाए नत्थि पढमा, तत्थ य घय-खीर-कूर-दधिमाई। पूर्वभणित कुड्यादि दोष का परिहार हो जाता है। बिइयाए बीय तइयाए दो वि तेसिं च धुव लंभो॥ १५१८.जइ पंच तिन्नि चत्तारि छसु सत्तसु य पंच अच्छंति। १५२४.ओभासिय धुव लंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। चोयगपुच्छा सज्झायकरण वच्चंत-अच्छंते॥ इहरा वि जहिच्छाए, तिकाल जोगं च सव्वेसिं॥ यदि पांच मुनि हों तो तीन वहीं रहते हैं, दो गुरु के आचार्य आवश्यक संपन्न कर एकत्रित साधुओं को क्षेत्र पास जाते हैं, यदि छह हों तो चार वहीं रहते हैं, दो गुरु । विषयक अपने विचारों को प्रकट करने के लिए कहते हैं। तब के पास और सात हों तो पांच वहीं रहते हैं और दो गुरु के वे प्रत्युपेक्षक रत्नाधिक के क्रम से कहते हैं। एक कहता हैपास जाते हैं। शिष्य प्रश्न करता है क्या वहां रहने वाले पूर्व दिशा में हमने क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा की। वहां प्रथम अर्थात् मुनि तथा गुरु के पास जाने वाले मुनि स्वाध्याय करते हैं सूत्रपौरुषी नहीं हो सकती क्योंकि उसी में भिक्षाटन करना अथवा नहीं? होता है। वहां घृत, दूध, कूर, दही आदि की प्रचुरता है। १५१९.वच्चंतकरण अच्छंतअकरणे लहुओ मासो गुरुओ उ। दूसरा क्षेत्रप्रत्युपेक्षक कहता है-मेरे द्वारा प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जावइकालं गुरुणो, न इंति सव्वं अकरणाए॥ द्वितीया अर्थात् अर्थपौरुषी नहीं हो सकती, क्योंकि वहां वही आचार्य कहते हैं-जाने वाले यदि सूत्रपौरुषी करते हैं तो भिक्षावेला है। तीसरा बोला-मेरे द्वारा निरीक्षित क्षेत्र में दोनों लघुमास का प्रायश्चित तथा अर्थपौरुषी करते हैं तो गुरुमास पौरुषियां हो सकती हैं। वहां घृत, दूध आदि की प्राप्ति का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और यदि वहां रहने वाले मुनि निश्चित होती है। चौथा बोला-मेरे द्वारा प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में सूत्रपौरुषी नहीं करते तो लघुमास और अर्थपौरुषी नहीं करते प्रायोग्य-अवभाषित द्रव्यों (घृत दूध आदि) की प्राप्ति अवश्य तो गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जब तक गुरु के पास वे होती है तथा वहां दोनों पौरुषियां नियमतः होती हैं। वहां नहीं पहुंच जाते तब तक सारा अर्थात् सूत्र-अर्थपौरुषी तीनों समय पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न में यथेष्ठ सामान्य अकरणीय है। भोजन-पानी प्राप्त हो जाता है। (आचार्य क्षेत्र के गुण-दोष १५२०.जइ वि अणंतर खेत्तं, गयाओ तह वि अगुणंतगा एंति।। सुनकर तीन दिशाओं को छोड़कर चौथी दिशा में जाने का निययाई मा गच्छे, इतरत्थ य सिज्जवाघाओ॥ निश्चय करते हैं।) यद्यपि अनन्तर (अव्यवहित) क्षेत्र में गए हैं, फिर भी वे १५२५. इच्छागहणं गुरुणो, कत्थ वयामो त्ति तत्थ ओअरिया। सूत्रार्थपौरुषी न करते हुए जाते हैं। क्योंकि नित्यवास आदि खहिया भणंति पढम, तं चिय अणुओगतत्तिल्ला॥ दोष गच्छ में न हों, इसलिए वे वैसा करते हैं। तथा १५२६.बिइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही य तइयगं खेत्तं। प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में विलंब से आने पर शय्या-उपाश्रय का आयरिओ उ चउत्थं, सो उ पमाणं हवइ तत्थ।। व्याघात होता है। गुरु शिष्यों का अभिप्राय जानने के लिए पूछते हैं हम १५२१.ते पत्त गुरुसगासं, आलोएंती जहक्कम सव्वे। किस ओर जाएं? जो शिष्य औदरिक-प्रथम प्रहर में पर्यास चिंता वीमंसा या, आयरियाणं समुप्पन्ना॥ आहार करना चाहते हैं, वे संभ्रांत होकर कहते हैं हमें पूर्व वे क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गुरु के पास आकर सभी यथाक्रम से दिशा में जाना चाहिए जहां प्रचुर अन्न-पान सुलभ होता है। क्षेत्र के स्वरूप की आलोचना करते हैं। आलोचना सुनकर अनुयोगग्रहण में तत्पर शिष्य भी उसी दिशा में जाना चाहते आचार्य के मन में किस दिशा में जाएं यह चिंतन तथा हैं जहां अर्थग्रहण में कोई व्याघात नहीं होता। सूत्रग्राही शिष्य बीमंसा (मीमांसा)-शिष्यों के अभिप्राय की विचारणा दूसरी दिशा में जाना चाहते हैं। उभयग्राही सूत्र और अर्थहोती है। दोनों का ग्रहण करने वाले शिष्य तीसरी दिशा में जाने का १५२२.गंतूण गुरुसगासं, आलोएत्ता कहिति खेत्तगुणे। अभिप्राय व्यक्त करते हैं। आचार्य चौथी दिशा वाले क्षेत्र में न य सेसकहण मा होज्जऽसंखडं रत्ति साहति॥ जाना चाहते हैं। आचार्य वहां सभी के मध्य प्रमाण होते हैं। वे क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गुरु के पास जाकर, गमनागमन की १५२७.मोहुब्भवो उ बलिए, दुब्बलदेहो न साहए अत्थं। आलोचना कर, क्षेत्र के गुणों का वर्णन करते हैं। वे आचार्य तो मज्झबला साहू, दुट्ठस्से होइ दिद्रुतो॥ के अतिरिक्त शेष साधुओं को नहीं कहते। शेष साधुओं को आचार्य सोचते हैं-प्रचुर स्निग्ध आहार की प्राप्ति से कहने पर परस्पर कलह हो सकता है। अतः वे रात्री में सारी शरीर बलवान होता है। बलवान् के अवश्य मोहोद्भव होता बात कहते हैं। है। जहां भक्तपान की अप्राप्ति होती है वहां रहने से मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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