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पहला उद्देशक
इन दिशाओं की गुण-दोष विचारणा इस प्रकार है-प्रथम अर्थात् पश्चिम-दक्षिण दिशा में प्रचुर अन्न-पान, दूसरी दिशा- दक्षिण में अन्न-पान का अलाभ, तीसरी दिशा अर्थात् पश्चिम में उपधि का अपहरण, चौथी दिशा अर्थात् दक्षिणपूर्व में स्वाध्याय की हानि, पांचवीं दिशा अर्थात पश्चिम उत्तर में साधुओं में कलह, छठी दिशा पूर्व में गच्छ का भेद, सातवीं दिशा उत्तर में साधुओं में ग्लानत्व - रोग की प्राप्ति । आठवीं दिशा अर्थात् पूर्व उत्तर में किसी मुनि का मरण । १५०९. समाही य भत्त-पाणे, उवगरणे तुमंतुमा य कलहो उ। भेदो गेलनं वा, चरिमा पुण कइए अन्नं ॥ इन दोनों गाथाओं का एक गाथा में उपसंहार इस प्रकार हे पहली दिशा में भक्त पान की समाधि, दूसरी दिशा में भक्त-पान का अभाव, तीसरी दिशा में उपाधि का अपहरण, चौथी दिशा में तुमंतुम ( तू-तू-मैं-मैं) पांचवीं दिशा में कलह, छटी दिशा में गणभेद, सातवीं दिशा में ग्लानत्व, आठवीं में अन्य साधु का मरण । १५१०. एक्केकम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया।
आणाइणो अ दोसा, विराहणा जा जहिं भणिया ॥ एक-एक स्थान में इन दिशाओं में प्रत्युपेक्षण का अतिक्रम करने पर चार मास का अनुद्धात प्रायश्चित्त विहित है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं तथा जिन-जिन दिशाओं में जोजो विराधना कही गई है, वह होती है।
१५११. पडिलेहियं च खेतं, अह य अहालंदियाण आगमणं ।
नत्थि उवस्सयवालो, सव्वेहि वि होड़ गंतव्वं ॥ गच्छवासी मुनियों ने एक ओर क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा की, इतने में ही वहां दो यथालंदिक मुनियों का आगमन हो गया। वहां उनके साथ उस क्षेत्र में स्थापनायोग्य कोई उपाश्रय नहीं है अतः सबको बहां से जाना होता है। १५१२. पुच्छिय रुइयं खेत्तं गच्छे पडिबद्ध बाहि पेहिंति ।
जं तेसि पाउम्गं खेत्तविभागे य पूरिंति ॥ गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक मुनियों ने गच्छवासी मुनियों से पूछा- क्या क्षेत्र रुचिकर है? उन्होंने कहा हां! तब यथालंदिक मुनि बाहर के क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करते हैं। जो उनके लिए प्रायोग्य वसति होती है, उसी का ग्रहण करते है तथा वे क्षेत्रविभाग अर्थात् उसके छह विभाग कर पूरा करते हैं।
१५१३. जं पि न वच्चति दिसिं
परनहियएसणाए
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तत्थ वि गच्छेल्लगा सिं पेहति ।
बिगई - लेवाडबन्जाई ॥
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जिस दिशा में यथालंदिक मुनि नहीं जाते, उस दिशा में भी गच्छवासी मुनि यथालंदिकों के लिए क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करते हैं। वे अभिग्रह धारण कर तीसरे प्रहर में, उपरीतन एषणा पंचक में से अन्यतर ऐषणा से विकृति और लेपकृत का वर्जन कर भक्तपान ग्रहण करते हैं।
१५१४. जइ तिन्नि सव्वगमणं, एहामु त्ति लहुओ य आणाई । परिकम्म कुड्डकरणं, नीहरणं कट्टमाईणं ॥ यदि गच्छवासी तीनों मुनियों को वहां से गुरु के पास जाते हुए देखकर शय्यातर उन्हें पूछता है- क्या आप पुनः आयेंगे या नहीं ? और यदि उत्तर दिया जाता है कि हम पुनः आएंगे तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। शय्यातर यह सोचना है कि ये अवश्य आएंगे अतः वह वसति का परिकर्म, जीर्ण भित्ति का पुनः करण, काष्ठ आदि का वहां से निष्काशन करता है।
१५१५. अन्द्राणनिग्नयाई, असिवाइ गिलाणओ अ जो जत्थ
मत्तय लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ वहां पूर्वस्थित मुनि किसी कारणवश नहीं आते और दूसरे मुनि वहां आ जाते हैं। वे दूर मार्ग से अथवा अशिव आदि कारणों से परिभ्रांत होते हुए वहां पहुंचे हैं। उनके साथ ग्लान मुनि भी है वसतिस्वामी उन्हें वसति की अनुज्ञा यह कहकर नहीं देता कि पूर्वस्थित मुनियों ने 'हम पुनः आएंगे' यह कहकर गए हैं, अतः मैं तुम्हें वसति नहीं देता। इस स्थिति में मुनियों की परितापना से निष्पन्न प्रायश्चित्त पूर्व मुनियों को आता है। अतः 'आयेंगे' यह नहीं कहना चाहिए और 'नहीं आयेंगे' यह भी नहीं कहना चाहिए। ऐसा कहने पर मासलघु का प्रायश्चित्त तथा आनामंग आदि दोष होते हैं। १५१६. वाक्कइअ विकएण व फेडण धन्नाइछुभणमावासे ।
नीणिते अहिकरणं, विराहणा हाणि हिंडते ॥ 'साधु नहीं आयेंगे' यह सोचकर बसतिस्वामी अपने स्थान को भाड़े पर किसी को दे देता है अथवा बसति की गिरा देता है अथवा उस रिक्त स्थान में धान्य आदि भर देता है अथवा बटुक- चारणों को दे देता है। साधु उसी स्थान पर आते हैं। उनके लिए यदि बटुकों को वहां से निष्काशित करता है तो कलह होता है। वसति के अभाव में इधर-उधर घूमने पर संयम विराधना तथा सूत्रार्थ की परिहानि होती है। १५१७. जह अम्हे तह अन्ने, गुरु-जेट्ठमहाजणस्स अम्हे मो।
पुव्वभणिया उ दोसा, परिहरिया कुड्डुमाईया || वसति से जाते समय साधु शय्यातर से कहे-जैसे हम यहां आए हैं वैसे ही अन्य साधु भी यहां आ सकते हैं हम गुरु तथा ज्येष्ठ आर्यसाधु समुदाय के अधीन हैं। वे जैसा
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