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________________ १५६ =बृहत्कल्पभाष्यम् १४९९.दव्वे तण-डगलाई, अच्छण-भाणाइधोवणा खित्ते। अन्य कोई क्षेत्र मास प्रायोग्य न हो और अन्य वसति का काले उच्चाराई, भावि गिलाणाइ कूरुवमा॥ अलाभ हो तो वैसी वसति में रहना अनुज्ञात है। प्रायोग्य चार प्रकार का होता है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, १५०३.सक्कारो सम्माणो, भिक्खग्गहणं च होइ पाहुणए। कालतः और भावतः। द्रव्यतः तृण, डगल आदि। क्षेत्रतः जइ वसइ जाणओ तहिं, आवज्जइ मासियं लहुगं। स्वाध्याय आदि के लिए अवस्थान। तथा भाजन आदि के अतिथि मुनि आने पर सत्कार, सम्मान, भिक्षाधोने के लिए प्रतिश्रय से बाहर का क्षेत्र। कालतः रात, दिन ग्रहण-भिक्षा लाकर देना-ये सब करणीय होते हैं। यदि या अकेला में उच्चार, प्रस्रवण का व्युत्सर्ग। भावतः-ग्लान वसति परिमित मुनियों के लिए अनुज्ञात हो तो जितने अतिथि आदि के लिए विशेष अवकाश। यहां कूर अर्थात् भक्त की मुनि आए हैं, इतने ही वास्तव्य मुनि वहां से अन्यत्र चले उपमा। जाएं। यदि नामग्राहपूर्वक परिमित साधुओं को ही वसति दी (वह इस प्रकार है-किसी ने किसी से भोजन की याचना हो तो प्राघूर्णक मुनियों को वसति के स्वरूप की जानकारी दे की। उसने उसे भोजन के साथ अवगाहिम, सूप, व्यंजन दे। यदि वसति स्वरूप को जानने वाला वहां रहता है तो उसे आदि भी दिया। इसी प्रकार तुमने वसति की अनुज्ञापना की। लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। हे तो उसके साथ-साथ मुनि के प्रायोग्य सभी की अनुज्ञापना १५०४. किइकम्म भिक्खगहणे, कयम्मि जाणाविओ बहिं बसइ। कर दी है। इतना कहने पर यदि वह सभी प्रायोग्य की अनुज्ञा हिय-नटेसुं संका, सुण्हा उब्भाम वोच्छेदो।। देता है तो सबका उपभोग करे तथा जहां व्युत्सर्ग का स्थान कृतिकर्म और भिक्षाग्रहण करने के पश्चात् यदि वसतिबताए वहां उत्सर्ग करे।) स्वरूप ज्ञापित किया जाए तो रात में अतिथि मुनि बाहर रहे। १५००.उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे य अच्छणए। यदि वह बाहर नहीं जाता है तो सागारिक हृत या नष्ट वस्तु करणं तु अणुन्नाए, अणणुन्नाए भवे लहुओ॥ के लिए उस अतिथि मुनि के प्रति शंका करता है। सागारिक उच्चार, प्रस्रवण, अलाबुनिर्लेपन (पात्रप्रक्षालन) तथा की पुत्रवधू किसी उद्भ्रामक के साथ गई हो, परंतु उस मुनि स्वाध्याय के लिए अवस्थान-इनका समाचरण शय्यातर पर ही शंका की जाती है। ऐसी स्थिति में सागारिक के द्रव्य द्वारा अनुज्ञात प्रदेश में करना चाहिए। अननुज्ञात प्रदेश में तथा अन्य द्रव्यों की प्राप्ति का व्यवच्छेद हो जाता है। करने पर लघुमास का प्रायश्चित विहित है। १५०५.पडिलेहियं च खेत्तं, थंडिलपडिलेहऽमंगले पुच्छा। १५०१.जाव गुरूण य तुब्भ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा। गामस्स व नगरस्स व, सियाणकरणं पढम वत्थु॥ केवइ कालेणेहिह, सागार ठवंति अन्ने वि॥ वसति-क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करने के पश्चात् महास्थंडिल शय्यातर यदि पूछे-आप कितने काल तक यहां ठहरेंगे? (शवपरिष्ठापनभूमी) की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। यहां उसे कहे-गुरु और तुम जितना चाहोगे उतने काल तक हम जिज्ञासु प्रश्न करता है-आप यह अमंगल क्यों करते हैं? रहेंगे। (निर्व्याघात होने पर एक मास और व्याघात होने पर आचार्य कहते हैं-वास्तुविज्ञान के अनुसार नए ग्राम या नगरएक मास से हीन या अधिक।) शय्यातर यदि पूछे-कितने निर्माण से पूर्व श्मशानस्थापनायोग्य प्रथम वास्तु का निवेशन मुनि यहां रहेंगे? उसे कहे-आचार्य को समुद्र की उपमा दी होता है। यह अमांगलिक नहीं है। गई है। (समुद्र कभी प्रसर्पण करता है और कभी अप्रसर्पण।) १५०६. दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा। यदि शय्यातर पूछे-आप यहां कितने काल के पश्चात् अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव।। आएंगे? तब उसे सविकल्प वचन कहे कि अन्य क्षेत्र- सबसे पहले महास्थंडिल के लिए पश्चिम-दक्षिण दिशा प्रत्युपेक्षक भी अन्यान्य दिशाओं में गए हुए हैं। सबके की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। उसके अभाव में दक्षिण दिशा, निवेदन को ध्यान में रखकर, इतने दिनों के पश्चात् या पूर्व उसके अभाव में पश्चिम, फिर दक्षिण-पूर्व, उसके अभाव में भी आ सकते हैं। निश्चित दिनों की अवधि न कहे। पश्चिम-उत्तर, तदनन्तर पूर्व, फिर उत्तर, उसके अभाव में १५०२.पुव्वद्दिवविच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइआ। पूर्व-उत्तर। तत्थ न कप्पइ वासो, असई खेत्तस्सऽणुन्नाओ॥ १५०७.पउरन्न-पाण पढमा, बीयाए भत्त-पाण न लहंति। यदि शय्यातर अपने पूर्वदृष्ट मुनियों की ही अवस्थिति तइयाइ उवहिमाई, चउत्थी सज्झाय न करिति ।। वहां देखना चाहता हो तथा वह कहे 'इतने ही साधु यहां १५०८.पंचमियाए असंखड, छट्ठीए गणस्स भेयणं जाण। रहे-ऐसी स्थिति में उस वसति में रहना नहीं कल्पता। यदि सत्तमिया गेलन्नं, मरणं पुण अट्ठमीए उ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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