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पहला उद्देशक
जिज्ञासु कहता है-दीर्घकाल तक भिक्षाचर्या के लिए घूमने तथा प्रणीत आहार ग्रहण करने में सूत्रार्थपरिमंथ तथा मोहोभव-ये दोषे होते हैं। आचार्य कहते हैं-भद्र! प्रणीत- ग्रहण और दीर्घ भिक्षाचर्या गुरु, प्राघूर्णक और ग्लान के लिए आवश्यक है, दर्प अर्थात् अपने बल और वर्ण को बढ़ाने के लिए नहीं। यदि मुनि अकारण ही एक मुनि के लिए भी प्रचुर प्रणीत आहार ग्रहण करते हैं तो उसमें दोष है। अकारण ही प्रचुर प्रणीत आहार स्वयं के लिए लेना भी दोष होता है। १४८९.दाणे अभिगम सड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते।
मामाए अचियत्ते, कुलाइं जाणंति गीयत्था।। दानश्राद्ध, अभिगमश्राद्ध (अणुव्रती), श्रावक, सम्यक्त्वी , मिथ्यात्वी, मामक, अप्रीतिकर-ये सब विभिन्न कुल हैं। इनको गीतार्थ मुनि जान लेता है। १४९०.जेहिं कया उ उवस्सय, समणाणं कारणा वसहिहे।
परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥ श्रमण पांच प्रकार के होते हैं-तापस, शाक्य, परिव्राजक, आजीवक और निर्मंथ। इनके रहने के लिए जिन गृहस्थों ने वसति का निर्माण कराया है उनको पूछकर, उन्हें सदोष जानकर, प्रयत्नपूर्वक उनका परिहार करना चाहिए। १४९१.जेहिं कया उ उवस्सय, समणाणं कारणा वसहिहे।
परिपुच्छिय निदोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ (होति)। जिन्होंने निर्ग्रथों को छोड़कर शेष चार प्रकार के श्रमणों के लिए उपाश्रय का निर्माण किया है, उनको पूछकर, उपाश्रय को निर्दोष जानकर उस उपाश्रय का परिभोग सुखपूर्वक कर सकते हैं। १४९२.जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं।
परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥ जिन्होंने श्रमणों के निवास हेतु उपाश्रयों में प्राभृतिकाउपलेपन, धवलन आदि कराया है, उन्हें पूछकर, उसे सदोष जानकर, उसका प्रयत्नपूर्वक परिहार करना चाहिए। १४९३.जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं।
परिपुच्छिय निहोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ (होति)। जिन्होंने निग्रंथों को छोड़कर शेष श्रमणों के लिए उपाश्रयों में प्राभृतिका की है, उन्हें पूछकर, उसे निर्दोष जानकर, उसका सुखपूर्वक उपभोग कर सकते हैं। १४९४.सिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नत्थि होइ चलणेसु।
अहिठाणे पुट्टरोगो, पुच्छम्मि य फेडणं जाणे॥ १४९५.मुहमूलम्मि उ चारी, सिरे अ कउहे अ पूअ सक्कारो।
खंधे पट्ठीइ भरो, पुट्टम्मि उ धायओ वसहो॥
(शिष्य ने पूछा-कैसे स्थान में वसति खोजनी चाहिए? आचार्य इस प्रसंग में वास्तु-विज्ञान के आधार पर कहते हैं-जितने क्षेत्र में वसि-वसति आक्रांत होती है उतने मात्र क्षेत्र में पूर्वाभिमुख वामपार्श्व में उपवष्टि वृषभ के आकर की परिकल्पना कर प्रशस्त स्थानों में वसति का ग्रहण करना चाहिए। किस अवयव के स्थान में प्राप्त वसति का क्या फल होता है, यह इन श्लोकों में बताया गया है।)
शृंगप्रदेश में वसति करने पर कलह होता है। पादप्रदेश में अवस्थिति नहीं होती। अधिष्ठान (अपानप्रदेश) में वसति करने से उदररोग होता है। पुच्छप्रदेश में वसति करने से अपनयन होता है। मुखमूल में वसति करने से चारी अर्थात् भोजन-संपत्ति सुलभ होती है, शृंग के मध्य भाग अथवा ककुद के स्थान पर पूजा-सत्कार की प्राप्ति, स्कंधप्रदेश तथा पृष्ठप्रदेश से आने जाने वाले साधुओं का भार होता है, उदरप्रदेश में वसति करने पर नित्य-तप्स रहने का लाभ होता है। यह वसति संबंधी विचारणा है। १४९६. देउलियअणुण्णवणा, अणुण्णविए तम्मि जं च पाउग्गं।
भोयण काले किच्चिर, सागरसरिसा उ आयरिया। सबसे पहले देवकुलिका की अनुज्ञापना करनी चाहिए। यदि देवकुलिका न हो तो गांव में प्रतिश्रय की खोज करे। स्वामी द्वारा अनुज्ञापित होने पर प्रायोग्य प्रतिश्रय का उपभोग करे। यदि वह प्रायोग्य की अनुज्ञापना न करे तो उसके समक्ष भोजन का दृष्टांत कहे (श्लोक १४९९)। यदि वह पूछे-आप कितने समय तक यहां रहेंगे तो उसे कहे जितने काल तक तुम और गुरु चाहोगे। यदि वह पूछे-आप यहां कितने मुनि रहेंगे? उसे कहे-आचार्य समुद्र सदृश होते हैं। १४९७.जं जं तु अणुन्नायं, परिभोगं तस्स तस्स काहिति।
अविदिन्ने परिभोगं, जइ काहिइ तत्थिमा सोही। गृहस्वामी ने तृण, डगल आदि जिन-जिन वस्तुओं की अनुज्ञापना की है, उन-उनका परिभोग अपने इच्छित क्षेत्र में किया जा सकता है। यदि शय्यातर के द्वारा अननुज्ञात क्षेत्र
और द्रव्य का परिभोग करेगा, उसकी शोधि (प्रायश्चित्त) इस प्रकार होगी। १४९८.इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलएसु।
कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु॥ अदत्त इक्कडमय अथवा कठिनमय संस्तारक का उपभोग करने पर लधुमास तथा पीठ-फलक का परिभोग करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। काष्ठ, किलिंच, क्षार, मल्लक आदि के परिभोग में पंचक (पांच दिन-रात) का प्रायश्चित्त है।
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