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________________ १५४ करते हैं तो मासलघु और अर्थपौरुषी करते हैं तो मासगुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।) १४७८. सुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवंता वयंतऽहालंदी। थंडिल्ले उवओगं, करिंति रत्तिं वसंति जहिं ॥ यथादिक मुनि सूत्र और अर्थ पौरुषी का हनन न करते हुए (यथासमय उनको करते हुए), बिहार और भिक्षाचर्या तीसरे प्रहर में करते हुए विहार करते हैं। जहां रात रहते हैं वहां कालग्रहणादि के लिए उपयोगी स्थंडिल को ध्यान में रखते हैं। १४७९. सुत्तत्थे अकरिंता, भिक्खं काउं अइंति अवरण्हे । बीयदिणे सज्झाओ, पोरिसि अद्धाए संघाडो ॥ सूत्रपौरुषी और अर्धपौरुषी न करते हुए गच्छवासी मुनि मिश्राचर्या कर अपराह्न में विवक्षित क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। ( वसति में रहकर, आवश्यक कर, काल की प्रत्युपेक्षा करते हैं । फिर प्रादोषिक स्वाध्याय कर, दो प्रहर तक सोते हैं। जो नहीं सोते वे अर्द्धरात्रिक और वैरात्रिक दोनों का काल ग्रहण करते हैं।) दूसरे दिन यथाकाल स्वाध्याय करना चाहिए । तदनन्तर आधी पौरूषी अतिक्रांत होने पर एक संघाटक भिक्षा के लिए जाता है। १४८०. बीयार भिक्खचरिया, वृच्छयणऽचिरुम्गयम्मि पडिलेहा । चोयग भिक्खायरिया, कुलाई तहुवस्सयं चैव ॥ अपराह्न में पहले विचारभूमी की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए । रात को वहां रहने पर, सूर्य के उदित होने के बाद अर्द्धपौरुषी में भिक्षाचर्या की प्रत्युपेक्षा होती है। शिष्य ने पूछा- प्रात: मिक्षाचर्या क्यों की जाती है? आचार्य कहते हैं- भिक्षाचर्या करते हुए वे दानकुलों को तथा उपाश्रय को जान पाएंगे। (पूरी व्याख्या गाथा १४८९ में) १४८१. वाले बुझे सेहे, आयरिय गिलाण मग पाहुणए । तिन्नि य काले जहियं, भिक्खायरिया उ पाउग्गा ॥ बल, वृद्ध, शैक्ष, आचार्य, ग्लान, क्षपक, प्राचूर्णक ( अतिथि) - इन सबके लिए तीनों काल में प्रायोग्य भिक्षा प्राप्त होती हो, वह क्षेत्र योग्य होता है। १४८२. खेत्तं तिहा करिता, दोसीणे नीणितम्मि उ वयंति। अन्नोने बहुलदे, थोवं दल मा य रूसिज्जा ॥ गोचरचर्या के लिए क्षेत्र के तीन विभाग किए जाते हैं-एक विभाग में प्रातःकाल घूमते हैं, दूसरे में मध्याह्न के समय, तीसरे में सायंकाल । जहां प्रातः भोजन का काल न हो, वहां १. प्रातः दो मुनि भिक्षाटन करते हैं और एक वसति की रक्षा करता है। मध्याह्न में, प्रातः जो मुनि भिक्षा के लिए गए थे, उनमें से एक वसति की रक्षा करता है और प्रातःकाल का रक्षपाल गोचरचर्या में जाता Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् गृहिणी ने वासी आहार (पूर्व दिन का भोजन) मुनि के लिए बाहर निकाला हो तो मुनि कहे- 'अन्यान्य गृहों में भोजन बहुत प्राप्त हो चुका है, अतः थोड़ा दो । रोष मत करना कि ये मुनि लेते नहीं हैं ।' १४८३. अहव न दोसीणं चिय, जायामो देहि णे दहिं खीरं । खीरे घय गुल गोरस, थोवं थोवं च सव्वत्थ ॥ अथवा यह कहे- हम केवल पर्युषित भोजन ही नहीं लेते, उसकी ही याचना नहीं करते, तुम हमें वही दूध भी दो दूध प्राप्त होने पर घृत, गुड़, गोरस, की याचना करे और सभी घरों से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे (इस प्रकार भद्रककुलों की जानकारी कर बाल, वृद्ध और क्षपक के प्रायोग्य पयः आदि लेकर आए ।) १४८४. मज्झहे पर मिक्खं परिताविय पेज जूस पय कढियं ओभट्टमणोभ, लब्भइ जं जत्थ पाउग्गं ॥ मध्यात में जहां प्रचुरमात्रा में भिक्षा प्राप्त होती हो, परितापित पदार्थ अर्थात् पक्वान मिलता हो, पेयायवागू, यूष- मूंग का रस, गर्म दूध तथा भाषित (विशिष्ट भोजन) या अनवभाषित (सामान्य भोजन) जो जहां जैसा प्रायोग्य प्राप्त होता हो, वह प्रशस्त क्षेत्र है । १४८५ चरिमे परिताविय पेज्ज खीर आएस- अतरणद्वाए। एक्वेक्कगसंजुत्तं, भत्तई एक्कमेक्कस्स ॥ चरिम भिक्षाकाल में (सायंकालीन मिक्षाकाल में) परितापित पेय, क्षीर प्राप्त हो उन कुलों की अवधारणा करे। उस समय कोई प्राघूर्णक या ग्लान मुनियों के लिए उन कुलों की आवश्यकता हो सकती है। भोजन आदि लाने के लिए एक साधु दूसरे साधु से संयुक्त होकर, एक साधु के उदरपूर्ति के लिए पर्यास भक्त लेकर आए। ' १४८६. ओसह भेसज्जाणि य, काले च कुले अ दाणसड्ढाई । सग्गामे हित्ता, पेहंति तओ परग्गामे ॥ औषध ( हरड आदि), भेषज (पेया, त्रिफला आदि) किनकिन कुलों में और किस बेला में प्राप्त होते हैं, तथा दानाश्राद्धादि कुलों का स्वग्राम में अवधारण करता है, तदनन्तर परग्राम में उनकी खोज करता है। १४८७. चोयगवयणं दीहं, पणीयगहणे य नणु भवे दोसा । जुज्जइ तं गुरु- पाहुण मिलाणगद्वा न दप्पष्ठा ॥ १४८८. जइ पुण खद-पणीए, अकारणे एक्कसि पि गिहिज्जा । तहियं दोसा तेण उ, अकारणे खद्ध-निहाई ॥ है। सायं दोनों रक्षपाल गोचरचर्या में जाते हैं और जो दो बार पर्यटन कर चुका है, वह वसति में रहता है। इस प्रकार प्रत्येक को दो-दो बार पर्यटन करना होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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