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पहला उद्देशक
१४६८.वुड्डोऽणुकंपणिज्जो, चिरेण न य मग्ग थंडिले पेहे।
___ अहवा वि बाल-वुड्डा, असमत्था गोयरतियस्स॥
वृद्ध को भेजने पर वह वृद्ध सर्वत्र अनुकंपनीय होता है। उसकी गति मंद होती है अतः वह गंतव्य पर विलंब से पहुंचता है। न वह मार्ग की सम्यक् गवेषणा करता है और न स्थंडिल की। तथा बाल और वृद्ध त्रिकालभिक्षाटन करने में असमर्थ होते हैं। १४६९.तूरंतो व न पेहे, गुणणालोभेण न य चिरं हिंडे।
विगई पडिसेहेई, तम्हा जोगिं न पेसिज्जा॥ यदि योगवाही को भेजा जाता है तो वह सोचता है-'मुझे श्रुत पढ़ना है' इसलिए वह त्वरा से मार्ग में गमन करता हुआ, मार्ग की सम्यग प्रत्युप्रेक्षा नहीं करता। वह पठित श्रुत के परावर्तन के लोभ से भिक्षा के लिए चिरकाल तक नहीं घूमता। भिक्षा में वह विकृति का प्रतिषेध करता है। इसलिए योगी (योगवाही) को नहीं भेजना चाहिए। १४७०.पंथं च मास वासं, उवस्सयं एच्चिरेण कालेण।
एहामो त्ति न याणइ, अगीतो पडिलोम असतीए॥ यदि अगीतार्थ को भेजा जाता है तो वह न मार्ग को जान पाता है और न मासकल्पयोग्य या वर्षावासकल्पयोग्य गांव को तथा न उपाश्रय की परीक्षा कर पाता है। शय्यातर के पूछने पर वह कह देता है हम इतने समय के बाद यहां से चले जाएंगे। ऐसा बोलना दोष है। परन्तु वह अगीतार्थ नहीं जानता। अनः पहले गणावच्छेदक को भेजना चाहिए। उसके अभाव में प्रतिलोम के क्रम से क्षेत्र-प्रत्युपेक्षा के लिए भेजना चाहिए। १४७१.सामायारिमगीए, जोगिमणागाढ खमग पारावे।
वेयावच्चे दायण, जुयल समत्थं व सहियं वा॥ अगीतार्थ को ओघसामाचारी बताकर भेजना चाहिए। अथवा अनागाढ़योगी (बाह्य योगवाही) को, उसके अभाव में क्षपक को पारणा करवाकर, उसके अभाव में वैयावृत्त्यकर को जिससे कि वह वास्तव्य साधुओं को स्थापनाकुलों की जानकारी दे सके, उसके अभाव में युगल अर्थात् बाल और वृद्ध मुनि को जो दृढ़शरीर वाले हों उनको भेजना चाहिए। अथवा उनके साथ वृषभ साधु भी हो।
(ये अपनी उपधि को वहां स्थित साधुओं को सौंप कर, परस्पर क्षमायाचना कर जाते समय पुनः गुरु को पूछकर जाएं। १४७२.तिन्नेव गच्छवासी, हवंतऽहालंदियाण दोन्नि जणा।
गमणे चोदगपुच्छा, थंडिलपडिलेहऽहालंदे॥ गच्छवासी जघन्यतः तीन-तीन मुनि एक-एक दिशा में जाते हैं। गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक दो मुनि एक दिशा में
जाते हैं। शेष तीन दिशाओं के लिए आचार्य गच्छवासी मुनियों को आदेश देते हैं कि तुम यथालंदिकों के योग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा भी करना। उनके गमन, नोदक की पृच्छा और यथालंदिकों की स्थंडिल प्रत्युपेक्षा के विषय में भी कहना चाहिए। १४७३.पंथुच्चारे उदए, ठाणे भिक्खंतरा य वसहीओ।
तेणा सावय वाला, पच्चावाया य जाणविही। मार्ग, उच्चारप्रस्रवणभूमी, उदकस्थान, विश्रामस्थान, भिक्षा-जिन-जिन प्रदेशों में भिक्षा प्राप्त होती है या नहीं, अन्तरा-बीच-बीच में वसति-प्रतिश्रय सुलभ हैं या नहीं, स्तेन-श्वापद और व्याल हैं या नहीं, प्रत्यपाय-जहां रात या दिन में अपाय होते हैं या नहीं यह गमनविधि है। इसका सम्यक् निरूपण करके जाना चाहिए। १४७४.वावारिय सच्छंदाण वा वि तेसिं इमो विही गमणे।
दव्वे खेत्ते काले, भावे पंथं तु पडिलेहे ।। आचार्य द्वारा नियुक्त तथा स्वच्छंद अर्थात् आभिग्रहिक मुनि-इन दोनों की शमनविधि यह है। वे द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः मार्ग की प्रत्युपेक्षा करे। १४७५.कंटग तेणा वाला, पडिणीया सावया य दव्वम्मि।
सम विसम उदय थंडिल, भिक्खायरियंतरा खेत्ते॥ १४७६.दिय राओ पच्चवाए, य जाणई सुगम-दुग्गमे काले।
भावे सपक्ख-परपक्खपेल्लणा निण्हगाईया॥ द्रव्यतः कंटक, स्तेन, व्याल, प्रत्यनीक तथा श्वापदमार्ग में इनकी प्रत्युपेक्षा करे।
क्षेत्रतः यह प्रत्युपेक्षा करे-मार्ग सम है या विषम, उदक बहुल मार्ग है या उदकरहित, स्थंडिलभूमी, भिक्षाचर्या (सुलभ या दुर्लभ) तथा अपान्तराल में वसतियां हैं या नहीं आदि।
कालतः दिन या रात में होने वाले प्रत्यपायों की जानकारी, मार्ग सुगम है अथवा दुर्गम यह जानना चाहिए।
भावतः यह जानकारी करे कि यह ग्राम अथवा मार्ग स्वपक्ष से अथवा परपक्ष से आक्रांत है या नहीं। स्वपक्ष है निलव आदि और परपक्ष है-चरक, परिव्राजक आदि। इन सब तथ्यों की प्रत्युपेक्षा करता हुआ आगे बढ़ता है। १४७७.सुत्तत्थाणि करते, न व ति वच्चंतगाउ चोएइ।
न करिति मा हु चोयग!, गुरूण निइआइआ दोसा।। शिष्य ने प्रश्न किया-विहार करते हुए क्षेत्रप्रत्युपेक्षक क्या सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करते हैं या नहीं? आचार्य कहते हैं-शिष्य! नहीं करते। क्योंकि उससे गुरु को नित्यवास आदि का दोष प्राप्त होता है। (यदि सूत्रपौरुषी
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