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-बृहत्कल्पभाष्यम्
को आमंत्रित करते हैं तो वृद्ध मुनि सोचते हैं हम मौलकपत्र दिशा सभी मुनियों द्वारा अनुमत हो तो उस दिशा में प्रस्थान अथवा परिपक्व पत्ते की भांति हो गए हैं अथवा हम कर दे। पहले चारों दिशाओं में गमन की बात सोचनी मूलकपत्र कंद विशेष के निस्सार पत्र की भांति हो गए हैं, चाहिए। यदि कहीं उपद्रव ज्ञात हो तो तीन दिशाओं में, फिर इसलिए हम यहां पराभव को प्राप्त हो रहे हैं। अतः हमें दो दिशाओं में तथा अंत में एक दिशा निर्धारित करनी गणान्तर में चले जाना चाहिए।
चाहिए। प्रत्येक दिशा में उत्कृष्टरूप में सात मुनि, उनके १४५९.जुन्नमएहिं विहूणं, जं जूहं होइ सुट्ठ वि महल्लं। अभाव में पांच और जघन्यतः तीन मुनि।।
तं तरुणरहसपोइअ, मयगुम्मइअं सुहं हंतुं॥ १४६४.वेयावच्चगरं बाल वुड खमयं वहंतऽगीयत्थं। जो मृगयूथ वृद्ध मृगों से रहित है, वह चाहे कितना ही गणवच्छेइअगमणं, तस्स व असती य पडिलोमं ।। बड़ा क्यों न हो, वह तारुण्य के वशीभूत तरुण मृगों की वैयावृत्यकर, बालमुनि, वृद्ध, क्षपक, योगवाही और चंचलता से त्रस्त तथा मद से घूर्णित चेतना वाला होने के अगीतार्थ इनको क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए नहीं भेजना चाहिए। कारण, उसका सहजता से विनाश किया जा सकता है। गणावच्छेदक का गमन हो सकता है। इनके अभाव में १४६०.आयरियअवाहरणे, मासो वाहित्तऽणागमे लहुओ। प्रतिलोमक्रम से भेजना चाहिए। अर्थात् अगीतार्थ, योगवाही
वाहिताण य पुच्छा, जाणगसिटे तओ गमणं॥ के क्रम से भेजना चाहिए। यदि आचार्य गण को आमंत्रित नहीं करते हैं तो उन्हें १४६५.आइतिए चउगुरुगा, लहुओ मासो उ होइ चरिमतिए। मासलघु का प्रायश्चित्त आता है तथा आमंत्रित किए जाने पर
आणाइणो विराहण, आयरियाई मुणेयव्वा।। जो नहीं आते हैं तो उन्हें भी मासलघु का प्रायश्चित्त आता यदि पहले तीन (वैयावृत्य आदि) को भेजने पर चारगुरुक है। गण को आमंत्रित कर पूछना चाहिए-किस क्षेत्र की का तथा अंतिम को भेजने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। क्षेत्रस्वरूपज्ञ जिस क्षेत्र का कथन है। आज्ञा आदि दोष तथा आचार्य आदि की विराधना भी करता है वहां प्रस्थान करना चाहिए।
जाननी चाहिए। १४६१.थुइमंगलमामंतण, नागच्छइ जो व पुच्छिओ न कहे। १४६६.ठवणकुले व न साहइ, सिट्ठा व न दिति जा विराहणया।
तस्सुवरि ते दोसा, तम्हा मिलिएसु पुच्छिज्जा। परितावणमणुकंपण, तिण्हऽसमत्थो भवे खमओ। आमंत्रण-विधि-स्तुतिमंगल करने के पश्चात् गण को यदि वैयावृत्त्यकर को भेजा जाता है तो वह स्थापनाकुलों आमंत्रित करना चाहिए। आमंत्रित करने पर जो नहीं आता की जानकारी नहीं देता। यदि वह उनकी जानकारी देता भी है अथवा आने के पश्चात् पूछने पर क्षेत्र का स्वरूप नहीं तो वे कुल उसके अतिरिक्त किसी को कुछ नहीं देते। ग्लान बताता तो मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसके आदि के लिए प्रायोग्य की प्राप्ति न होने पर उनकी विराधना पश्चात् जो दोष होते हैं (चोरों का, श्वापदों का) वे वहां होती है। इससे आचार्य को प्रायश्चित्त आता है। क्षपक को जाने वालों के होंगे। इसलिए आमंत्रित सभी मुनियों को भेजने पर उसके परितापना होती है, उससे निष्पन्न पूछना चाहिए।
प्रायश्चित्त भी गुरु को आता है। अथवा लोग क्षपक पर १४६२.केई भणंति पुब्विं, पडिलेहिय एवमेव गंतव्वं। अनुकंपा कर, यह तीन गोचरचर्या अर्थात् तीन काल में
तं तु न जुज्जइ वसहीफेडण आगंतु पडिणीए॥ भिक्षाटन करने में असमर्थ है, यह सोचकर उसे सब दे देते कुछेक आचार्य कहते हैं-पूर्व-प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में बिना हैं, दूसरों को नहीं। अथवा क्षपक की सेवा में रहने वाला प्रत्युपेक्षकों को भेजे चले जाना चाहिए। यह उचित नहीं है। देवता उस पर अनुकंपा कर क्षेत्र में भी भक्त-पान का संभव है वहां की वसति नष्ट हो गई हो, गिर गई। उत्पादन कर देता है। हो अथवा वहां कोई प्रत्यनीक आकर रह रहा हो, १४६७. हीरेज्ज व खेलेज्ज व, कज्जा-ऽकजं न याणई बालो। इसलिए पूर्व-प्रत्युपेक्षित क्षेत्र की भी पुनः प्रत्युपेक्षा करनी
सो व अणुकंपणिज्जो, न दिति वा किंचि बालस्स॥ चाहिए।
यदि बालक को भेजा जाता है तो उसका कोई अपहरण १४६३.कयरी दिसा पसत्था, अमुगी सव्वेसि अणुमए गमणं। कर सकता है, वह बालक अन्य बालकों के साथ खेलने लग
चउदिसि ति दु एक्कं वा, सत्तग पणगे तिग जहन्ने। जाता है, वह कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को नहीं जानता, वह गण को आमंत्रित कर आचार्य पूछे-प्रस्थान के लिए अनुकंपनीय होता है अथवा बालक को कोई कुछ नहीं देताकौनसी दिशा प्रशस्त है। यदि कहे-अमुक दिशा। यदि वह अतः बालक को भेजना उचित नहीं होता।
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