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पहला उद्देशक
वर्षावास के अतीत हो जाने पर आठ मास तक विहार होता है। उसे शरदादि कहा जाता है। क्षेत्रप्रत्युपेक्षणविधि तथा क्षेत्रसंक्रमणविधि और उस क्षेत्र में स्थित मुनियों की मर्यादा कहूंगा। १४५०.निग्गमणम्मि उ पुच्छा, पत्तमपत्ते अइच्छिए वा वि।
वाघायम्मि अपत्ते, अइच्छिए तस्स असतीए। वर्षावास क्षेत्र से निर्गमन विषयक यह पृच्छा होती है कि क्या कार्तिकचातुर्मासिक प्राप्त होने पर वहां से विहार करना चाहिए अथवा अप्राप्त होने पर अथवा उसके अतिक्रांत होने पर? यदि कोई व्याघात होता है तो कार्त्तिकचातुर्मासिक अप्राप्त होने पर अथवा अतिक्रांत होने पर भी विहार किया जा सकता है। यदि व्याघात नहीं है तो कार्तिकचातुर्मासिक के दिन (मृगशिर की प्रतिपदा) विहार करना होता है। १४५१.पत्तमपत्ते रिक्खं, असाहगं पुण्णमासिणिमहो वा।
पडिकूल त्ति य लोगो, मा वोच्छिइ तो अईयम्मि॥ कार्तिकचातुर्मासिक दिन प्राप्त हो अथवा नहीं यदि आचार्य के विहार के लिए नक्षत्र साधक न हो, अनुकूल न हो, उस दिन पौर्णमासी का उत्सव हो तो उस दिन के अतीत होने पर ही वहां से निर्गमन करना चाहिए। अन्यथा लोग कहेंगे कि ये साधु हमारे उत्सव के प्रतिकूल हैं। १४५२.पत्ते अइच्छिए वा, असाहगं तेण णिति अप्पत्ते।
नाउं निग्गमकालं, पडिचरए पेसविंति तहा॥ निर्गमनकाल के प्राप्त होने पर अथवा अतिक्रांत होने पर भी नक्षत्र असाधक है, यह जानकर कार्तिक चातुर्मासिक दिन प्रास न होने पर भी मुनि विहार कर देते हैं। निर्गमनकाल को जानकर प्रतिचरक अर्थात् क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को इस प्रकार भेजते हैं कि उनके लौट आने पर ही निर्गमनकाल की घोषणा करते हैं। १४५३. अप्पडिलेहियदोसा, वसही भिक्खं व दुल्लह होज्जा।
बालाइ-गिलाणाण व, पाउग्गं अहव सज्झाओ॥ १४५४.तम्हा पुव्विं पडिलेहिऊण पच्छा विहीए संकमणं।
पेसेइ जइ अणापुच्छिउं गणं तत्थिमे दोसा॥ अप्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जाने पर ये दोष आते हैं जो पूर्व में ज्ञात वसति थी, वह गिर गई हो अथवा और किसी कारण से उपलब्ध न हो, भिक्षा वहां दुर्लभ हो, बाल तथा ग्लान मुनियों के प्रायोग्य आहार आदि प्रास न हो तथा स्वाध्याय
यथावत् न हो पाता हो। इसलिए पहले क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर तदनन्तर विधिपूर्वक संक्रमण करना चाहिए। यदि आचार्य गण को बिना पूछे क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को भेजते हैं तो निम्नोक्त दोष प्राप्त होते हैं। १४५५.तेणा सावय मसगा, ओमऽसिवे सेहइत्थि पडिणीए।
थंडिल्ल वसहि उट्ठाण एवमाई भवे दोसा।। स्तेनों द्वारा उपधि का अपहरण, श्वापदों का तथा मशकों का उपद्रव, दुर्भिक्ष, अशिव-व्यन्तरकृत उपद्रव, शैक्ष मुनियों के लिए स्त्रियों का उपसर्ग, प्रत्यनिक द्वारा उपस्थापित उपद्रव, स्थंडिल भूमी का अभाव, वसति का न मिलना, गांव का उजड़ जाना-आदि अनेक दोष होते हैं। १४५६.पच्चंत तावसीओ, सावय दुब्भिक्ख तेणपउराई। ___ नियग पउट्ठाणे, फेडणया हरियपत्ती य॥
वहां जाने पर ये दोष हो सकते हैं-म्लेच्छों का उपद्रव, तापसियों द्वारा संयमच्युत करने का प्रयत्न, श्वापदों का तथा दुर्भिक्ष का भय, चोरों की प्रचुरता, निज व्यक्तियों द्वारा उत्प्रव्राजन का प्रयत्न, प्रद्विष्ट व्यक्तियों का उपसर्ग, स्थान का उजड़ जाना, वसति का भंग हो जाना, हरित पत्रशाक' खाने की प्रचुरता। १४५७.सीसे जइ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं।
जइ इअरे तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छंति॥ १४५८.तरुणा बाहिरभाव, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्म।
मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वच्चिमो थेरा।। यदि क्षेत्र-प्रत्युपेक्षण के निमित्त समूचे संघ को आमंत्रित नहीं करते हैं तो ये दोष प्राप्त होते हैं
यदि आचार्य इस विषय में अपने शिष्यों को ही आमंत्रित करते हैं पूछते हैं तो प्रतीच्छक शिष्य उससे बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं। यदि प्रतीच्छक शिष्यों को पूछते हैं तो अपने शिष्य बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं। (वे सोचते हैं-गुरु के ये प्रतीच्छक शिष्य ही कृपापात्र हैं। इस स्थिति में हम इनकी सेवा क्यों करें।) वे प्रतीच्छक भी सूत्रार्थ-ग्रहण समाप्त होने पर अपने गच्छ में चले जाते हैं।
यदि केवल वृद्ध मुनियों को आमंत्रित करते हैं तो तरुण मुनि बाह्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं तब वे न गुरु आदि के उपकरणों का प्रत्युपेक्षण करते हैं, न स्थविरों के उपधि का वहन करते हैं और न कृतिकर्म करते हैं। यदि वे तरुण मुनियों गया है। अतः मारने पर भी हमें कोई दोष नहीं है। चूर्णिकार के अनुसार जब वहां आगंतुक का वध कर दिया जाता है तब उसके प्रियपुच्छक हरितशाखा लेकर आते हैं। अथवा वहां विष या गरल दे दिया जाता है आदि-आदि।
१. हरियपत्ती-इस शब्द के दो अर्थ है-हरितपत्रशाक अथवा उस देश में
कुछेक घरों पर आईवृक्षशाखा का चिह्न किया जाता है। वहां राजा द्वारा दंडित आगंतुक पुरुष की देवता को बलि चढ़ाई जाती है। उस चिह्न के द्वारा यह पूर्वसूचित कर दिया जाता है कि यहां वध किया
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