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________________ १५० बृहत्कल्पभाष्यम् उत्कृष्ट और मध्यम।' प्रस्तुत में उत्कृष्टलंद का प्रसंग है। विकल्प है। जिनकल्पी मुनि पाणिपात्र और वस्त्ररहित भी उत्कृष्टलंदचारी वे होते हैं जो उत्कृष्टलंद अर्थात् पंचरात्ररूप होते हैं और पात्रसहित तथा वस्त्रसहित भी होते हैं। एक ही वीथी में चरणशील होते हैं, उसका अतिक्रमण नहीं १४४३.गणमाणओ जहन्ना, तिन्नि गण सयग्गसो य उक्कोसा। करते यह यथालंद होता है। विकलक्षणप्रमाण वाला पुरिसपमाणे पनरस, सहस्ससो चेव उक्कोसा॥ गणप्रमाण मध्यम लंदमान होता है अर्थात तीन गण उस गणप्रमाण के अनुसार जघन्यतः तीन गण और उत्कर्षतः कल्प को स्वीकार करते हैं। वह एक-एक गण में पांच शताग्रशः-शतपृथक्त्वगण। पुरुषप्रमाण के आधार पर जघन्य पुरुषप्रमाण वाला होने पर उत्कृष्ट लंदमान कहलाता है। पन्द्रह पुरुष और उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व। १४३९.ज च्चेव य जिणकप्पे, मेरा सा चेव लंदियाणं पि। १४४४.पडिवज्जमाणगा वा, एक्कादि हवेज्ज ऊणपक्खेवे। नाणत्तं पुण सुत्ते, भिक्खायरि मासकप्पे य॥ होति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा॥ जो जिनकल्पिकों की मर्यादा सामाचारी है, वही ये प्रतिपद्यमान जघन्यतः एक आदि हो सकते हैं, न्यूनयथालंदिक मुनियों की है। उनमें नानात्व इन विषयों में प्रक्षेप के बाद।३ सौ व्यक्तियों का न्यूनप्रक्षेप होने पर हे सूत्र, भिक्षाचर्या, मासकल्प तथा प्रमाण। प्रतिपद्यमानकों की उत्कृष्ट संख्या होती है। १४४०.पडिबद्धा इअरे वि य, इक्किक्का ते जिणा य थेरा य। १४४५.पुव्वपडिवन्नगाण वि, उक्कोस-जहन्नसो परीमाण। __ अत्थस्स उ देसम्मी, असमत्ते तेसि पडिबंधो॥ कोडिपुहुत्तं भणियं, होइ अहालंदियाणं तु॥ यथालंदिक के दो प्रकार हैं-गच्छप्रतिबद्ध और पूर्व प्रतिपन्नक यथालंदिकों का जघन्य और उत्कृष्ट गच्छमुक्त। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-जिन और स्थविर। जो परिमाण कोटिपृथक्त्व कहा गया है। (पांच महाविदेह में यथालंद कल्प की परिसमाप्ति पर जिनकल्प स्वीकार करते जघन्य परिमाण और पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्ट परिमाण।) हैं वे जिन कहलाते हैं तथा पुनः स्थविरकल्प में जाते हैं वे १४४६.पव्वज्जा सिक्खापय, अत्थग्गहणं च अनियओ वासो। स्थविर कहलाते हैं। सूत्र के अर्थ का एकदेश अभी तक गुरु निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव।। के पास समाप्त नहीं हुआ है, अर्थग्रहण पर्यन्त वे गच्छ से प्रव्रज्या, शिक्षापना, अर्थग्रहण, अनियतवास तथा शिष्य प्रतिबद्ध होते हैं, उनका प्रतिबंध रहता है। (भिक्षाचर्या में की निष्पत्ति ये पूर्ववर्णित जिनकल्प के तुल्य हैं। विहार की नानात्व-गांव के छह भाग कर प्रत्येक भाग में पांच-पांच दिन स्थिति और सामाचारी इस प्रकार है। पर्यटन करते हैं।) १४४७.निप्फतिं कुणमाणा, थेरा विहरंति तेसिमा मेरा। १४४१.थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स। आयरिय उवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य॥ ते वि य से फासुएणं, करिति सव्वं तु पडिकम्म॥ शिष्य की निष्पत्ति करते हुए स्थविर अर्थात् गच्छवासी १४४२.एक्केक्कपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेराओ। मुनि अप्रतिबद्ध विहार करते हैं। विहार की यह सामाचारी है। जे पुण सिं जिणकप्पे, भय तेसिं वत्थ-पायाणि॥ गच्छवासी मुनि पांच प्रकार के हैं-आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर कल्प यथालंदिकों की यह विशेष सामाचारी है स्थविर और क्षुल्लक। कि वे अपने ग्लान साधु को गच्छ को समर्पित कर देते हैं। १४४८.धीरपुरिसपन्नत्तो, सप्पुरिसनिसेविओ अ मासविही। गच्छवासी मुनि भी उसकी प्राशुक अन्न-पान से सारा तस्स पडिलेहगा पुण, सुत्तत्थविसारगा भणिया।। प्रतिकर्म करते हैं। (जिनकल्प स्वीकार करने वाले यथालंदिक धीर पुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त तथा सत्पुरुषों द्वारा निषेवित मुनि अपने ग्लान साधु को गच्छ को समर्पित नहीं करते।) वे मासकल्पविधि है। उसकी प्रतिलेखना करने वाले साधु स्थविरयथालंदिक प्रत्येक मुनि एक-एक पतद्ग्रह सहित होते सूत्रार्थविशारद कहे गए हैं। हैं। वे सप्रावरणक-सवस्त्र होते हैं। उनमें से जो जिनकल्प १४४९.वासावासातीए, अट्ठसु चारो अतो उ सरदाई। ग्रहण करने वाले होते हैं, उनके वस्त्र-पात्र की भजना पडिलेह-संकमविही, ठिए अ मेरं परिकहेह।। १. जघन्यलंद-जितने समय में उदकार्द्र हाथ सूखता है, वह काल। लंबे समय के बाद प्राप्त होंगे अथवा प्राप्त न भी हों, तो वे अर्थदश को उत्कृष्टलंद-पांच रात-दिन एक ही वीथी में चरणशील। बिना समाप्त किए ही उस कल्प को स्वीकार कर लेते हैं और गुरु मध्यमलंद-दोनों के बीच का काल। द्वारा अधिष्ठित क्षेत्र से बाह्य क्षेत्र में व्यवस्थित होकर विशेष अनुष्ठान २. शिष्य पूछता है-वे शेष अर्थदश को समाप्त कर विवक्षित कल्प को में रत रहकर उस अवशिष्ट अर्थदश को ग्रहण करते हैं। स्वीकार क्यों नहीं करते? आचार्य कहते हैं-उसी समय ही लग्न, ३. अपना कोई मुनि ग्लान हो गया हो तो उसको गच्छ को सौंपने से यह योग, चन्द्र आदि प्रशस्त होते हैं। अन्य ऐसे प्रशस्त लग्न आदि बहुत न्यूनता होगी। धार 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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