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पहला उद्देशक
इनके तपोभावना में नानात्व होता है। वे आचाम्ल द्वारा परिकर्म-अभ्यास करते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं-इत्वर और यावत्कथिक। जो इस कल्प के संपन्न होने पर पुनः स्थविर-कल्प स्वीकार करते हैं वे इत्वर तथा जो जिनकल्प स्वीकार करते हैं वे यावत्कथिक। १४२७. पुण्णे जिणकप्पं वा, अइंति तं चेव वा पुणो कप्पं।
गच्छं वा इंति पणो, तिन्नि विहाणा सिं अविरुद्धा॥ शुद्धपरिहारिककल्प पूर्ण होने पर जो जिनकल्प में आते हैं अथवा उसी परिहारिकल्प का पालन करते हैं अथवा गच्छ में पुनः आ जाते हैं। ये तीनों प्रकार के विधान उन परिहारिकों के अविरुद्ध हैं। १४२८.इत्तरियाणुवसग्गा, आतंका वेयणा य न भवंति।
य न भवाता __ आवकहियाण भइया, तहेव छ ग्गामभागा उ॥
इत्वर शुद्धपरिहारिकों के आतंक और वेदना का उपसर्ग नहीं होता। यावत्कथिकों के इसकी भजना है अर्थात् वे जिनकल्प में स्थित होने के कारण उनकी संभावना रहती है। जैसे जिनकल्पी मुनि भिक्षाटन के लिए गांव के छह भाग करते हैं वैसे ही शुद्धपरिहारिक की भी सामाचारी है। १४२९.खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए।
कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य॥ १४३०.पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्घाया।
कारण निप्पडिकम्मा, भत्तं पंथो य तइयाए॥ क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुंडापना, मानसिक दोष में भी अनुद्घात प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म, भक्त, पंथ-विहार तीसरे प्रहर में। (इनका संक्षिप्त तथा व्यासार्थ पूर्ववत् गाथा १०१३-१४ आदि- आदि में।) १४३१.खेते भरहेरवएसु होति साहरणवज्जिया नियमा।
ठियकप्पम्मि उ नियमा, एमेव य दुविह लिंगे वि॥ ये भरत-ऐरावत-इन दो क्षेत्रों में होते हैं। इनका संहरण नहीं किया जा सकता। ये नियमतः स्थितकल्प में होते हैं तथा नियमतः ये दोनों लिंग-द्रव्य और भाव-में होते हैं। १४३२.तुल्ल जहन्ना ठाणा, संजमठाणाण पढम-बितियाणं।
तत्तो असंख लोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा॥ १४३३.ते वि असंखा लोगा, अविरुद्धा ते वि पढम-बिइयाणं।
उवरिं पि ततो असंखा, संजमठाणा उ दोण्हं पि॥ पहले तथा दूसरे संयमस्थानों (सामायिक तथा
छेदोपस्थाप्य चारित्र) के जो जघन्य स्थान हैं, वे तुल्य होते हैं। इनसे आगे असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण संयमस्थानों के व्यतीत होने पर परिहारविशुद्धि चारित्र के संयमस्थान होते हैं। वे भी असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण वाले होते हैं। ये भी प्रथम और द्वितीय चारित्र की विशुद्धि की विशेष समता के कारण अविरुद्ध होते हैं। तदनन्तर परिहारविशुद्धि चारित्र के संयमस्थानों से ऊपर सामायिक, छेदोपस्थापनीय चारित्र दोनों के संयमस्थान होते हैं अतः ये दोनों चारित्र व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। (तदनन्तर सूक्ष्मसंपराय चारित्र के अंतर्मुहर्तसमयप्रमाण वाले असंख्येय संयमस्थान होते हैं। फिर उनसे अनंतगुण यथाख्यातचारित्र का एक संयमस्थान होता है। १४३४.सट्ठाणे पडिवत्ती, अन्नेसे वि होज्ज पुव्वपडिवन्नो।
अन्नेसु वि वढ्तो, तीयनयं वुच्चई पप्प॥ स्वस्थान अर्थात् परिहारविशुद्धिकचारित्र वाले संयमस्थानों में वर्तमान मुनि परिहारकल्प की प्रतिपत्ति करता है। पूर्वप्रतिपन्न मुनि सामायिकादि अन्य संयमस्थानों में स्वसंयमस्थानों की अपेक्षा से विशुद्ध होने पर होता है। अन्य संयमस्थानों में वर्तमान भी वह अतीतनय अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से उसे परिहारविशुद्धिक कहा जाता है। १४३५.गणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिवत्ति सयसो उक्कोसा।
उक्कोस-जहन्नेणं, सतसो च्चिय पुव्वपडिवन्ना॥ गणना दो प्रकार से होती है-गणप्रमाण से तथा पुरुषप्रमाण से। गणप्रमाण से जघन्यतः तीन गण ही इसकी प्रतिपत्ति करते हैं और उत्कर्षतः शतशः अर्थात् शतपृथक्त्वसंख्या में कल्प की प्रतिपत्ति करते हैं। जो पूर्वप्रतिपन्न हैं वे उत्कर्षतः तथा जघन्यतः शतपृथक्त्वसंख्याक होते हैं। १४३६.सत्तावीस जहन्ना, सहस्स उक्कोसतो उ पडिवत्ती।
सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्ना जहन्न उक्कोसा।। जघन्यतः सत्तावीस पुरुष और उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व व्यक्ति इस कल्प को स्वीकार करते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्यतः शतपृथक्त्व तथा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्व। १४३७.पडिवज्जमाण भइया, इक्को विउ होज्ज ऊणपक्खेवे।
पुव्वपडिवन्नया वि उ, भइया इक्को पुहुत्तं वा॥ इस कल्प में प्रतिपद्यमानक पुरुष विकल्पित होते हैं, जैसे-ऊनप्रक्षेप में एक भी हो सकता है और दो भी। पूर्वप्रतिपन्न भी विकल्पित हैं-एक भी और पृथक्त्व भी। १४३८.लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा।
तं चिय मज्झ पमाणं, गणाण उक्कोस पुरिसाणं ।। लंद का अर्थ है-काल। वह तीन प्रकार का है-जघन्य,
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