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________________ तिार १४१७.नोसप्पिणिउस्सप्पे, भवंति पलिभागतो चउत्थम्मि। काले पलिभागेसु य, साहरणे होति सव्वेसु॥ अवसर्पिणी काल में जन्म से दो अरों में-तीसरे-चौथे अर में तथा सदभावतः तीन अरों में तीसरे, चौथे और पांचवें में। उत्सर्पिणी काल में जन्मतः और सद्भाव से इससे विपरीत होता है अर्थात् जन्मतः दुःषमा, दुषमसुषमा और सुषमदुःषमा-इन तीन अरों में जिनकल्पी का जन्म हो सकता है। जिनकल्प का स्वीकार दुःषमसुषमा और सुषम-दुःषमा-इन दो अरों में होता है। दुःषमा में जन्म लेने पर भी, तीर्थ के अभाव में, जिनकल्प की प्रतिपत्ति दुःषमसुषमा में ही होती है। जिन क्षेत्रों में नोउत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है अर्थात् वहां काल अवस्थित हैं उनके चार प्रतिभाग हैं सुषमसुषमापनिभाग, सुषमाप्रतिभाग, सुषमदुःषमाप्रतिभाग और दुःषमसुषमाप्रतिभाग। पहला प्रतिभाग देवकुरु-उत्तरकुरु में, दूसरा हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष में, तीसरी हैमवत-ऐरण्यवत में और चौथा महाविदेह में। चौथे प्रतिभाग में जन्मतः और सद्भावतः जिनकल्पी मुनि होते हैं। 'काल' अर्थात् महाविदेहज जो जिनकल्पी होता है, संहरण की अपेक्षा वह सुषमसुषमा आदि सभी कालों में होता है। 'पलिभागों में' अर्थात् भरत-ऐरावतमहाविदेह में संहरण से संभूत जिनकल्प मुनि सभी प्रतिभागों में होते हैं। १४१८.पढमे वा बीये वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं। पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होज्जा। जो पहले चारित्र-सामायिक चारित्र में अथवा दूसरे चारित्र-छेदीपस्थापनीय चारित्र में होता है, वह जिनकल्प स्वीकार करता है। (मध्यम तीर्थंकर-विदेहतीर्थकृत, तीर्थवर्ती मुनि प्रथम संयम में तथा पूर्व-पश्चिम तीर्थकर तीर्थवर्ती मुनि दूसरे चारित्र में) पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी मुनि अन्यतर संयमसूक्ष्मसंपराय आदि संयम में हो सकता है। १४१९.नियमा होइ सतित्थे, गिहिपरियाए जहन्न गुणतीसा। जइपरियाए वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा।। जिनकल्पी नियमतः तीर्थ में होते हैं। जघन्य गृहस्थपर्याय उनतीस वर्ष का तथा यतिपर्याय भी जघन्य बीस वर्ष का होना चाहिए। दोनों का उत्कृष्ट पर्याय जब देशोनपूर्वकोटी प्राप्त होता है तब जिनकल्प का स्वीकार होता है। १४२०.न करिति आगमं तं, इत्थीवज्जो उ वेदो इक्कतरो। पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्ज सवेओ अवेओ वा॥ वे आगम-अपूर्वश्रुताध्ययन नहीं करते, पूर्व अधीत श्रुत १. पहली बार स्वीकार करने वाला द्रव्य-भावलिंगयुक्त ही होता है। आगे नियमतः भावलिंग होता है। द्रव्यलिंग जीर्ण हो जाने पर =बृहत्कल्पभाष्यम् का स्मरण अवश्य करते हैं। प्रतिपत्ति काल में स्त्रीवेट को छोड़कर पुरुषवेद अथवा नपुंसकवद उनके होता है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा वे सवेद अथवा अवेद होते हैं। (जिनकल्पिक को उसी भव में केवलोत्पत्ति नहीं होती। उपशमश्रेणी में वेद का उपशमन होने पर अवेद होते हैं। शेष काल में सवेद हैं।) १४२१.ठियमट्ठियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्वलिंगेणं। तिहि सुद्धाहि पढमया, अपढमया होज्ज सव्वासु॥ जिनकल्पिक प्रथम और अंतिम तीर्थंकर काल में स्थितकल्प में तथा मध्यम तीर्थंकर तथा महाविदेह तीर्थंकर काल में अस्थितकल्प में होते हैं। लिंग के विषय में द्रव्यलिंग से भजना है। प्रथमतः स्वीकार करने वाले तेजोलेश्या आदि तीन प्रशस्त लेश्याओं में होते हैं अप्रथमक सभी लेश्याओं में होते हैं। १४२२.धम्मेण उ पडिवज्जइ, इअरेसु वि होज्ज इत्थ झाणेसु। पडिवत्ति सयपुहुत्तं, सहसपुहुत्तं च पडिवन्ने। जिनकल्प का स्वीकार धर्म्यध्यान में होता है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इतर ध्यानों में भी यह होता है। प्रतिपत्ति की अपेक्षा जिनकल्पिक एक समय में शतपृथक्त्व प्राप्त हो सकते हैं और पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से सहस्रपृथक्त्व प्राप्त हो सकते हैं। ९४२३.भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सो उ पव्वावे। उवदेसं पुण कुणती, धुवपव्वाविं वियाणित्ता॥ उनके भिक्षाचर्या आदि के अभिग्रह नहीं होते। वे किसी को प्रव्रजित नहीं करते। वे निश्चित प्रवजित होने वाले को जानकर उपदेश देते हैं। १४२४.निप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अत्थि किंचि नाणाई। जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नाऽऽवज्जे॥ वे शरीर का कोई परिकर्म नहीं करते। उनके कोई ज्ञान आदि का कारण-आलंबन नहीं होता जिससे वे अपवादपद का सेवन करें। जंघाबल के परिक्षीण हो जाने से विहार न करने पर भी उनके कोई दोष उत्पन्न नहीं होता। १४२५.एसेव कमो नियमा, सुद्धे परिहारिए अहालंदे। नाणत्ती य जिणेहिं, पडिवज्जइ गच्छ गच्छो य॥ यही क्रम नियमतः शुद्धपरिहारिक तथा यथालंदिक का जानना चाहिए। जिनकल्प के साथ शुद्धपरिहारिक का नानात्व है। तीन गच्छ इस जिनकल्प को स्वीकार करते हैं। १४२६.तवभावणणाणतं, करंति आयंबिलेण परिकम्म। इत्तिरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहियाओ॥ अथवा चोरों द्वारा अपहृत किए जाने पर द्रव्यलिंग कदाचिद् नहीं भी होता। Jain Education International For Private &Personal use only. www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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