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पहला उद्देशक
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पूतिगृह में तीन दिनों तक साधु को कुछ भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। जब तीसरा कल्प' अर्थात् दिन बीत जाता है तब कल्पता है। १४०६.बिइयदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिवसाई पूइयं होइ।
तिसु कप्पेसु न कप्पइ, कप्पइ तं छट्ठदिवसम्मि॥ पूर्व गाथा का स्पष्टार्थ इस प्रकार है-पहले दिन श्राविका ने अनगार को घूमते देख दूसरे दिन आधाकर्म भक्त तैयार किया। तदनन्तर तीन दिन तक पूतिक होता है, उन तीन कल्पों-दिनों तक उसका ग्रहण नहीं कल्पता। किन्तु वह छठे दिन कल्पता है। १४०७.कल्लं से दाहामी, ओगाहिमगं न आगतो अज्ज।
तइयदिवसाइतं होइ पूइयं कप्पए छटे॥ श्राविका ने मुनि के लिए अवगाहितपाक तैयार किया। उस दिन मुनि नहीं आए। उसने सोचा-मैं कल उनको यह दान दूंगी। उसने मुनि के लिए वह अवगाहिमपाक स्थापित कर दिया। वह पाक तीसरे दिन भी आधाकर्म ही होगा। तीन दिनों तक पूतिक। छठे दिन उसका ग्रहण कल्पता है। १४०८.एमेवोगाहिमगं, नवरं तइयदिवसे वि तं कम्म।
तिसु पूइयं न कप्पइ, कप्पइ तं सत्तमे दिवसे॥ भक्त की भांति अवगाहिम तीसरे दिन भी आधाकर्म, तदनन्तर तीन दिनों तक वह गृह पूतिक होता है। वहां उस काल में कुछ भी लेना नहीं कल्पता, किन्तु वह गृह सातवें दिन कल्पता है। १४०९. चोयग! तं चेव दिणं, जइ वि करिज्जाहि कोइ कम्माई।
न हु सो तं न वियाणइ, एसो पुण सिं अहाकप्पो।। शिष्य! यदि कोई उसी दिन आधाकर्म भक्त बना दे, तो ऐसी बात नहीं है कि अनगार उसको नहीं जानता, वह श्रुतोपयोग से जान लेता है। शिष्य पूछता है यदि वे श्रुतोपयोग से जान लेते हैं तो फिर गांव के अनेक विभाग कर क्यों पर्यटन करते है? आचार्य कहते हैं-यह उनका कल्प है। वे सातवें दिन पुनः प्रथम वीथि में भक्तपान के लिए घूमते हैं। १४१०.किं नागय त्थ तइया, असव्वओ मे कओ तुह निमित्तं।
इइ पुट्ठो सो भगवं, बिइयाएसु इमं भणइ॥ श्राविका कहती है-भंते ! आप उस समय क्यों नहीं आए? मैंने आपके लिए विपुल भक्तपान तैयार किया था। इस प्रकार पूछने पर अनगार मौन रहते हैं। इस विषय में आदेशान्तर इस प्रकार है१. कल्पशब्देनेह दिवस उच्यते। (वृ. पृ. ४२२)
१४११.अनियताओ वसहीओ, भमरकुलाणं च गोकुलाणं च।
समणाणं सउणाणं, सारइआणं च मेहाणं॥ श्राविका द्वारा पूछे जाने पर अनगार कहते हैं जैसे भ्रमरकुलों का, गोकुल का, श्रमणों का, पक्षियों का तथा शारदीय मेघों का अवस्थान और परिभ्रमण अनियत होते हैं वैसे ही हमारे वसतियां और परिभ्रमण अनियत होते हैं, अनियतवृत्ति में आधाकर्म आदि की प्रवृत्ति नहीं होती। १४१२.एक्काए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा।
__ अवरोप्परसंभासं, चयंति अन्नोन्नवीहिं च॥ जिनकल्पी मुनि एक वसति में उत्कृष्टतः सात रहते हैं। वे परस्पर के संभाषण का और अन्योन्य वीथि में पर्यटन का परित्याग करते हैं अर्थात् जिस दिन जिस वीथि में एक जिनकल्पी जाता है, उसी में दूसरा मुनि नहीं जाता। १४१३.खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए।
कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य॥ १४१४.पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्घाया।
कारण निप्पडिकम्मे, भत्तं पंथो य तइयाए॥ उन जिनकल्पी मुनियों के स्थिति संबंधी १९ विषय हैं१. क्षेत्र ११. ध्यान २. काल १२. गणना ३. चारित्र १३. अभिग्रह ४. तीर्थ १४. प्रव्राजना ५. पर्याय १५. मुंडापना ६. आगम १६. मानसिक अपराध में भी ७. वेद - अनुद्घात प्रायश्चित्त ८. कल्प १७. कारण ९. लिंग १८. निष्प्रतिकर्म
१०. लेश्या १९. भक्त और पंथविहार-तीसरे प्रहर में। १४१५.जम्मण-संतीभावेसु होज्ज सव्वासु कम्मभूमीसु।
साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्मभूमे वा।। क्षेत्र की मार्गणा के दो प्रकार है-जन्म से तथा सद्भाव से। जन्म क्षेत्र वह है जहां जन्म होता है। सदभाव क्षेत्र वह है जहां जिनकल्प स्वीकार किया जाता है अथवा किया गया है। दोनों प्रकार सभी कर्मभूमियों में हो सकते हैं। देवता द्वारा संहरण किए जाने पर कर्मभूमी अथवा अकर्मभूमी में हो सकता है। यह सद्भाव की अपेक्षा से है। जन्मतः तो कर्मभूमी में ही होता है। १४१६.ओसप्पिणीइ दोसुं, जम्मणतो तीसु संतिभावेणं।
उस्सप्पिणि विवरीया, जम्मणतो संतिभावे य॥
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