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नहीं ढंकते, आगल नहीं लगाते। स्थविरकल्पी मुनि भी दर्प अर्थात् प्रयोजन के बिना वसति का यह परिकर्म नहीं करते और प्रयोजन होने पर करते भी हैं। १३९३.किच्चिरकालं वसिहिह, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु।
__ इह अच्छसु मा य इहं, तण-फलए गिण्हिमे मा य॥ १३९४.सारक्खह गोणाई, मा य पडिंति उविक्खहउ भंते!
अन्नं वा अभिओगं, नेच्छंतऽचियत्तपरिहारी॥ जिनकल्पी मुनि जब वसति की याचना करते हैं तब वसतिस्वामी पूछता है आप यहां कितने समय तक रहेंगे? अथवा अमुक प्रदेश में उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करें, अमुक प्रदेश में नहीं। अथवा यहां बैठें, यहां न बैठें। ये तृणफलक आदि ग्रहण करें, ये न करें। भंते! आप गायों आदि पशुओं से वसति का संरक्षण करें तथा यत्र-तत्र गिरती हुई वसति की उपेक्षा न करें। ऐसे या इनके अतिरिक्त (स्वाध्याय प्रतिषेध आदि) वसतिस्वामी जिन अन्य कार्यों का अभियोग अर्थात् नियंत्रण करे तो अप्रीति का परिहार करने वाले वे मुनि उस वसति की इच्छा भी न करे। १३९५.पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न वसन्ति।
___ जत्थ य भणंति ठंते, ओहाणं देह गेहे वि॥
जिस वसति में प्राभृतिका बलि की जाती हो, दीपक जलाया जाता हो अथवा अग्नि आदि का जहां प्रकाश होता हो वहां वे मुनि नहीं रहते। जहां रहते हैं वहां यदि गृहस्थ कहे कि आप हमारे घर का भी अवधान-ध्यान रखें-ऐसे स्थान में भी वे मुनि न रहें। १३९६. वसहिं अणुण्णवितो, जइ भण्णइ कइ जण त्थ तो न बसे।
सुहुमं पि न सो इच्छइ, परस्स अप्पत्तियं भगवं॥ वसति की अनुज्ञा देते हुए यदि वसतिस्वामी कहे-आप यहां कितने मुनि रहेंगे? मुनि वहां न रहे। क्योंकि जिनकल्पी मुनि दूसरों की सूक्ष्म अप्रीति की भी इच्छा नहीं करते। १३९७.तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुव्वुत्ता।
एमेव पाणगस्स वि, गिण्हइ अ अलेवडे दो वि॥ जिनकल्पी मुनि तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या करते हैं। वे अभिग्रहयुक्त एषणा करते हैं। यह गाथा १३६२ में पहले बताया जा चुका है। इसी प्रकार पानक के विषय में ज्ञातव्य है। वे भक्त-पान दोनों अलेपकृत ग्रहण करते हैं। १३९८.आयंबिलं न गिण्हइ, जं च अणायंबिलं पि लेवाडं।
न य पडिमा पडिवज्जइ, मासाई जा य सेसाओ॥ ये जिनकल्पी आचाम्ल ग्रहण नहीं करते और जो अनाचाम्ल है, वह भी लेपकृत ग्रहण नहीं करते। ये मास प्रतिमाएं तथा शेष कोई भी प्रतिमा स्वीकार नहीं करते।
बृहत्कल्पभाष्यम् १३९९.कप्पे सुत्त-ऽत्थविसारयस्स संघयण-विरियजुत्तस्स।
जिणकप्पियस्स कप्पइ, अभिगहिया एसणा निच्चं॥ जिनकल्प विषयक जो सूत्र और अर्थ में विशारद है, जो संहनन और धृति से युक्त है, ऐसे जिनकल्पी मुनि के नित्य अभिग्रहयुक्त एषणा कल्पती है। १४००.छव्वीहीओ गाम, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ।
वज्जेउं होइ सुह, अनिययवित्तिस्स कम्माई।। जिनकल्पी मुनि जहां मासकल्प करते हैं वे उस ग्राम को छह पंक्तियों में विभाजित करके प्रतिदिन एक-एक पंक्ति में घूमते हैं। इस प्रकार अनियतवृत्ति वाले उन मुनियों के आधाकर्म आदि दोष सुखपूर्वक अर्थात् सहजरूप से वर्जित हो जाते हैं। १४०१.अभिग्गहे दटुं करणं, भत्तोगाहिमग तिन्नि पूईय।
चोदग! एगमणेगे, कप्पो त्ति य सत्तमे सत्त॥ जिनकल्पी मुनि के अभिग्रहों को देखकर कोई श्रावक आधाकर्म आदि भोजन बना दे। वह भोजन अवगाहिम हो सकता है। तीन दिनों के पश्चात् वह पूतिक हो जाता है। शिष्य प्रश्न करता है-भंते! एक ही गांव के वे छहवीथियां क्यों करते हैं? आचार्य कहते हैं ऐसा करना उनका कल्प है। सातवें दिन पुनः वे पहली वीथि में आते हैं। एक वसति में सात जिनकल्पी मुनि रह सकते हैं। १४०२ दट्टण य अणगारं, सड्डी संवेगमागया काइ।
नत्थि महं तारिसयं, अन्नं जमलज्जिया दाह ।। अनगार को देखकर कोई श्राविका संवेग को प्राप्त होकर सोचती है-मैं ऐसे अनगार को भी भिक्षा नहीं दे सकती। मेरे पास ऐसा अन्न-भोजन नहीं है कि मैं अलज्जित होकर दूं। १४०३.सव्वपयत्तेण अहं, कल्लं काऊण भोअणं विउलं।
दाहामि तुट्ठमणसा, होहिइ मे पुण्णलाभो ति॥ कल मैं सर्वप्रयत्न से विपुल भोजन सामग्री बनाकर प्रसन्नमन से अनगार को भिक्षा दूंगी। इससे मुझे महान् पुण्य लाभ होगा। १४०४.फेडित वीही तेहिं, अणंतवरनाण-दंसणधरेहिं।
अद्दीण अपरितंता, बिइयं च पहिंडिया तहियं। वे अनंतवरज्ञानदर्शनधर जिनकल्पी अनगार उस दिन उस वीथि को छोड़कर मन से अविषण्ण और अपरितान्त होते हुए दूसरी वीथि में पर्यटन करने लगे। १४०५.पढमदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिवसाई पूइयं होइ।
पूतीसु तिसु न कप्पइ, कप्पइ तइओ जया कप्पो॥ अनगार के लिए जो भक्त उपस्कृत किया वह पहले दिन आधाकर्म था। तीन दिनों तक वह गृह पूति हो जाता है। उस
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