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पहला उद्देशक
विषयक होने के कारण, शेष सात सामाचारियां जिनकल्पिक १३८७.जइ वि य उप्पज्जंते, सम्मं विसहति ते उ उवसग्गे। के नहीं होती।
रोगातंका चेवं, भइया जइ होति विसहति।। १३८१.अहवा वि चक्कवाले, सामायारी उ जस्स जा जोग्गा। उनके उपसर्ग होते ही हैं या नहीं, यह एकांततः नहीं कहा
सा सव्वा वत्तव्वा, सुयमाई वा इमा मेरा॥ जा सकता। वे उत्पन्न उपसर्गों को सम्यगरूप से सहन करते अथवा जिनकल्पिक की दसविध चक्रवाल सामाचारी जो हैं, रोग और आतंक वैकल्पिक हैं अर्थात् उत्पन्न होते भी हैं जिसके योग्य हो, उन सबका उल्लेख इस सामाचारी द्वार में और नहीं भी होते। यदि उत्पन्न होते हैं तो वे उनको सहन करना चाहिए। श्रुत आदि विषयक यह मर्यादा है।
करते हैं। १३८२.सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेदणा कइ जणा य। १३८८.अब्भोवगमा ओवक्कमा य तेसि वियणा भवे दुविहा।
थंडिल्ल वसहि केच्चिरे, उच्चारे चेव पासवणे॥ धुवलोआई पढमा, जरा-विवागाइ बिइएक्को॥ १३८३.ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य। जिनकल्पी मुनियों के दो प्रकार की वेदना होती है
पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य॥ आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी। पहली आभ्युपगमिकी १३८४.भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य। वेदना है-ध्रुवलोच आदि। ध्रुव का अर्थ है-प्रतिदिनभावी।
आयंबिल पडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य॥ दूसरी औपक्रमिकी वेदना है-जरा तथा विपाक-कर्मों के उदय ये तीनों द्वार गाथाएं हैं। इनमें जिनकल्प विषयक २७ से होने वाली। द्वारों का उल्लेख है
छठा द्वार है-कितने जन? जिनकल्पी मुनि एक अर्थात् १. श्रुत १०. उच्चार १९. अवधान
अकेले भी होते हैं। २. संहनन ११. प्रस्रवण २०. वसति में कितने १३८९.उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे।
जन रहेंगे?
तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झई वत्थे। ३. उपसर्ग १२. अवकाश २१. भिक्षाचर्या
वे उच्चार और प्रस्रवण का उत्सर्ग प्रथम स्थंडिल ४. आतंक १३. तृणफलक २२. पानक
(अर्थात् अनापात-असंलोक) में करते हैं और वहीं कृतकार्य ५. वेदना १४. संरक्षणता २३. लेपालेप
होकर जीर्ण वस्त्रों का व्युत्सर्ग कर देते हैं। ६. कितने जन? १५. संस्थापनता २४. अलेप
१३९०.अप्पमभिन्नं वच्चं, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं। ७. स्थंडिल १६. प्राभृतिका २५. आचाम्ल
दीहे विउ उवसग्गे, उभयमवि अथंडिले न करे। ८. वसति १७. अग्नि २६. प्रतिमा
वे अल्प और रूक्ष भोजन करते हैं अतः उनका मल अल्प ९. कितना काल १८. दीप २७. मासकल्प। और अभिन्न होता है। इसलिए शुचि नहीं लेते। यह उनका १३८५.आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स। कल्प है। वे दीर्घकालीन उपसर्ग की स्थिति में भी उभय
तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई। संज्ञा-उच्चार-प्रस्रवण का त्याग अस्थंडिल में नहीं करते। जिनकल्पी मुनि का जघन्य श्रुत प्रत्याख्यान नामक नौवें १३९१. अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ। पूर्व की आचार नामक तीसरी वस्तु। इतना श्रुत पढ़ने पर ही
एमेव य थेराणं, मुत्तूण पमज्जणं एक्कं ।। कालज्ञान होता है। इससे न्यून ज्ञान वाला जिनकल्प को जिनकल्पी मुनि ममत्वरहित होते हैं। उनकी वसति स्वीकार नहीं कर सकता। उसके उत्कर्षतः भिन्न दश पूर्वो की नियमतः परिकर्मरहित होती है। स्थविरकल्पी मुनियों की श्रुतपर्याय होती है। (संपूर्ण दशपूर्वधर प्रवचन की प्रभावना वसति भी अपरिकर्मा होती है। केवल वहां प्रमार्जना परिकर्म तथा परोपकार के द्वारा ही बहुत निर्जरालाभ कर लेता है। होता है। वह जिनकल्प स्वीकार नहीं करता।)
१३९२.बिले न ढक्वंति न खज्जमाणिं, १३८६.पढमिल्लुगसंघयणा, धिईए पुण वज्जकुडसामाणा।
गोणाइ वारिति न भज्जमाणिं। उप्पज्जति न वा सिं, उवसग्गा एस पुच्छा उ॥
दारे न ढक्कंति न वऽग्गलिंति, जिनकल्पिक प्रथम संहनन अर्थात् वज्रऋषभनाराच
दप्पेण थेरा भइआ उ कज्जे॥ संहनन वाले होते हैं। उनकी धृति (मानसिक प्रणिधान) जिनकल्पी मुनि वसति में रहे हुए चूहे आदि के बिलों को वज्रकुड्य के सदृश होती है। उनके दिव्य आदि उपसर्ग नहीं ढंकते और गायों द्वारा घास आदि खाए जाते हुए अथवा उत्पन्न होते हैं या नहीं यह पृच्छा है।
वसति को तोड़े जाते हुए का निवारण नहीं करते। वे द्वार को
ता
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