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________________ विषयानुक्रमणिका= २७१५ गाथा संख्या विषय २७०० भिक्षु, वृषभ उपाध्याय और आचार्य के कलह करने पर प्रत्येक को प्रायश्चित्त का विधान। २७०१-२७०५ उपेक्षा, उपहास, उत्तेजना, सहायक पदों की व्याख्या। २७०६,२७०७ अधिकरण-कलह की उपेक्षा करने पर होने वाला अनर्थ। उसका निदर्शन। २७०८-२७११ अधिकरण के दोष। उनकी विवेचना। कलह के होने पर अथवा समाप्ति पर होने वाले दोष। २७१२ निश्चयनय के अनुसार चारित्र का स्वरूप। संसारभ्रमण को बढ़ाने वाला कौन? २७१३,२७१४ कर्कश अधिकरण-कलह होने पर पार्श्वस्थित मुनियों द्वारा कलह को उपशांत करने की विधि और उपदेश। देशोनपूर्वकोटी वर्षों में अर्जित चरित्र को एक मुहूर्त में नष्ट करने वाला कौन ? २७१६,२७१७ दो मुनियों के परस्पर कलह करने पर आचार्य द्वारा पक्षपात करने पर प्रायश्चित्त। पक्षपात की स्थिति में दूसरे शिष्य का चिंतन और कथन का प्रकार। २७१८-२७३० उपशांत मुनि के द्वारा अनुपशान्त मुनि के विषय में आचार्य को निवेदन। आचार्य द्वारा अनुपशान्त को प्रज्ञापित करने के लिए पर के निक्षेप का प्रयोग। 'पर' शब्द के भेद-प्रभेद तथा निक्षेप। उनकी विवेचना। २७३१ अधिकरण कलह करने से संबंधित अपवादपद। चार-पदं सूत्र ३५ २७३२,२७३३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को चातुर्मास काल में एक गांव से दूसरे गांव में जाने के कल्प का निषेध । २७३४ वर्षावास के दो प्रकार-प्रावृड़ और वर्षारात्र। साधु-साध्वियों को उनमें विहरण करने पर प्रायश्चित्त और वर्षारात्र के पूर्ण होने पर विहार न करने पर प्रायश्चित्त। २७३५-२७३७ साधु-साध्वियों को वर्षावास में विहार करने पर लगने वाले आज्ञा-विराधनादि दोष तथा अभिघात आदि होने वाली अनेक आपदाएं। २७३८-२७४७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को वर्षावास में विहरण संबंधी आपवादिक कारण और उनसे संबंधित यतनाएं। आपवादिक कारणों का स्वरूप। गाथा संख्या विषय सूत्र ३६ २७४८ ऋतुबद्ध काल में विहार संबंधी सूत्र। २७४९,२७५० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को हेमंत तथा ग्रीष्मऋतु में विहार नहीं करने से होने वाले दोष और विहार के लाभ। . २७५१-२७५८ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को हेमंत तथा ग्रीष्मऋतु में विहार मार्ग में आने वाले मासकल्प के योग्य ग्राम, नगरादि को छोड़कर अन्यत्र विहरण करने का निषेध। उनसे लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। उससे संबंधित आपवादिक कारण। वेरज्ज-विरुद्धरज्ज-पदं सूत्र ३७ २७५९ निर्ग्रन्थ-निन्थियों को विरुद्धराज्य में विहरण करने का निषेध। २७६०,२७६१ वैराज्य, विरुद्धराज्य आदि की व्याख्या तथा वहां गमनागमन करने का निषेध। २७६२ वैर शब्द के छह निक्षेप। भाववैर संबंधी महिष, वृषभ आदि के दृष्टान्त। २७६३,२७६४ अराजक, यौवराज्य, वैराज्य और द्वैराज्य-इन चारों की व्याख्या तथा उनका स्वरूप। २७६५ विरुद्धराज्य की व्याख्या तथा वहां जाने से होने वाले दोष। २७६६-२७८३ विरुद्धराज्य में गमनागमन कितने प्रकार से हो सकता है। उसके ६४ भांगे। वहां जाने से आज्ञाभंग आदि दोष। २७८४-२७९१ वैराज्य में गमनागमन के आपवादिक कारण और उनसे संबंधित यतनाएं। ओग्गह-पदं सूत्र ३८ २७९२,२७९३ विरुद्धराज्य में भिक्षार्थ गया हुआ मुनि वस्त्र आदि ग्रहण करने पर आचार्य की अनुज्ञा से उपभोग करने की विधि। २७९४-२७९६ वस्त्र के दो प्रकार। निमंत्रणावस्त्र का स्वरूप। उससे संबंधित पृच्छादि सामाचारी। उसके विरुद्ध आचरण से आने वाला प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २७९७-२८०२ पृच्छादि सामाचारी के विरुद्ध निमंत्रणा-वस्त्र ग्रहण करने पर लगने वाले दोष, शंका और विराधना आदि से प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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