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________________ ६० गाथा संख्या विषय २५८७ साधुओं के परस्पर विकथा करना द्रव्य क्रिया का फलित, भावक्रिया का नहीं। २५८८ - २५९१ निर्ग्रन्थों के द्रव्यतः प्रतिबद्ध भावतः अप्रतिबद्ध रूप पहले भंग वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले अधिकरणादिदोष । उनका स्वरूप और उनमें होने वाली यतनाएं। भावतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने पर प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय के चार प्रकार। प्रस्रवण, स्थान, रूप और शब्द प्रतिबद्ध की षोडशभंगी । २५९४-२६१३ निर्ग्रन्थों को द्रव्यतः अप्रतिबद्ध भावतः प्रस्रवण स्थान- रूप शब्द प्रतिबद्ध रूप दूसरे भंग वाले उपाश्रय में रहने के दोष । उनका स्वरूप और उनसे संबंधित अनेक यतनाएं। २६१४,२६१५ निग्रन्थों को द्रव्य भाव प्रतिबद्ध रूप तीसरे भांगे वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष आदि तथा द्रव्य भाव अप्रतिबद्ध भांगे वाले उपाश्रय की निर्दोषता का कथन । सूत्र ३१ २६१६ निर्ग्रथीविषयक प्रतिबद्ध शय्या सूत्र की व्याख्या । २६१७-२६२० द्रव्य प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने वाली निर्यन्थियों को लगने वाले दोष, यतना आदि । २६२१-२६२८ भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने वाली श्रमणियों को लगने वाले दोष, यतना आदि तथा 'पूपलिकाखादक' का उदाहरण । गाहावइकुलमज्झवास-पदं २५९२ २५९३ सूत्र ३२ गृहपतिकुलमध्यवास- निन्यों को गृहपतिकुल के बीचोंबीच रहने का निषेध । २६३०-२६३२ मध्य के दो प्रकार । उनकी व्याख्या तथा दोनों के निर्वाही और अनिर्वाही भेद से दो-दो प्रकार और उनकी व्याख्या । उपरोक्त चारों प्रकारों के तीनतीन भेद इन तीनों में निर्ग्रन्थों को रहने का निषेध | वहां रहने पर प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष । २६३३-२६४४ निर्ग्रन्थों को शाला में रहने के कारण होने वाली क्रियाएं और लगने वाले दोष २६४५-२६५२ निर्ग्रन्थों को शाला के मध्य अपवरक, वलभी अथवा अन्यत्र गृहमध्य में रहने से होने वाली २६२९ Jain Education International गाथा संख्या विषय क्रियाएं और लगने वाले दोष । इनके अतिरिक्त अतिगमन, अनाभोग, अवभाषण, मज्जन और हिरण्य-इन पांच द्वारों से निरूपण । २६५३ - २६५८ निर्ग्रन्थों को छिंडिका में रहने से लगने वाले दोष । २६५९-२६६७ शाला, मध्य और छिंडिका बार संबंधी यतनाएं। सूत्र ३३ २६६८- २६७५ श्रमणियों को गृहपतिकुल के बीचोंबीच रहने का निषेध । तथा उनके शाला आदि में रहने वाले दोषों का वर्णन तथा प्रस्तुत सूत्र की सार्थकता । विओसवण-पदं २६७६ २६७७ बृहत्कल्पभाष्यम् सूत्र में 'च' शब्द से और 'भिक्षु' से किसका ग्रहण ? २६७८, २६७९ क्षामित, व्यवशमित, विनाशित और क्षापितएकार्थिक तथा प्राभृत, प्रहेनक और प्रणयन ये नरक के एकार्थवाची इच्छा और आढा शब्द का अर्थ | २६८०,२६८१ अधिकरण के चार प्रकार | द्रव्यविषयक अधिकरण के चार प्रकार उनका स्वरूप | २६८२-२६८४ भावाधिकरण का स्वरूप उससे जीव किस प्रकार पृथक् पृथक् गति में जाता है, उसकी व्याख्या । २६८५-२६८८ व्यवहार नय से द्रव्य के चार प्रकार तथा निश्चय नय से उसके प्रकार। दोनों नय की अपेक्षा से द्रव्य का गुरुत्व, लघुत्व और अगुरुलघुत्व का स्वरूप | २६८९-२६९१ जीव कर्मों को बांधने में स्वतंत्र और कर्मों के उदय में परतंत्र, यह कैसे ? आचार्य द्वारा समाधान | जीव कर्मों को खपाते हैं वे कर्म उदीर्ण होते हैं या अनुदीर्ण ? उनका स्वरूप | २६९३ - २६९७ भावाधिकरण की उत्पत्ति के पांच हेतु । उनका निरूपण । २६९२ सूत्र ३४ गृहपति के मध्य में साधुओं का रहना अकल्प्य और साध्वियों का कल्प्य यह कैसे ? अथवा कलह क्यों ? समाधान | For Private & Personal Use Only २६९८, २६९९ साधु के द्वारा साधु को कुपित करने पर तथा उपहास करने पर, कलहकारक को उत्तेजित और कलह कराने में सहायक होने पर और उनकी उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त । www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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