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________________ भूमिका कुल्मासपिण्डिका खाता है, एक चुल्लू पानी पीता है, निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करता है, आतापन-भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है, वह छह मास के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला हो जाता कल्पसूत्र के पांचवें उद्देशक में आतापना के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। निपन्न लेटकर आतापना लेना उत्कृष्ट आतापना है। निषण्ण-बैठकर आतापना लेना मध्यम आतापना है। स्थित-खड़े रहकर आतापना लेना जघन्य आतापना है।२ आतापना का प्रयोग वैदिक परम्परा में भी सम्मत रहा है। पंचाग्नि तप में एक अग्नि सूर्य की किरणों को माना गया है। इनका वैज्ञानिक महत्त्व भी है। वैज्ञानिक दृष्टि से की गई शोध का निष्कर्ष है कि सूर्य की किरणें मानव के शरीर और मस्तिष्क को स्वस्थ और पुष्ट रखती हैं। ये रोग-निवारक और कीटाणु-नाशक भी हैं। डॉ. चाल्स एफा हेलैन तथा लन्दन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. डब्ल्यू. एम. फ्रेजर का मत है कि संसार में जितनी शक्तियां विकसित हैं, वे सब सूर्य के कारण विगत कुछ दशकों में सूर्यकिरण चिकित्सा से भी आश्चर्यकारी परिणाम सामने आए हैं। डॉ. हेगेन का अभिमत है कि रक्त का पीलापन, पतलापन, लोह तत्त्व की कमी, कमजोरी, पेशियों की शिथिलता, थकान आदि रोगों में सूर्य की सहायता से उपचार करना सरल है। सूर्य की रश्मियों से शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ती है। इस विषय में काफी अनुसंधान हुआ है और हो रहा है। वैज्ञानिक अनुसंधाता जैन आगम साहित्य में उपलब्ध तथ्यों को भी शोध का विषय बनाएं, यह अपेक्षित है। सूत्र और भाष्य का उपसंहार बृहत्कल्पसूत्र के अंतिम सूत्र में छह प्रकार की कल्पस्थिति बताई गई है-सामायिकसंयत कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीयसंयत कल्पस्थिति, निर्विशमान कल्पस्थिति, निर्विष्टकाय कल्पस्थिति, जिनकल्प कल्पस्थिति और स्थविर कल्पस्थिति। कल्पस्थान दस हैं-आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातरपिंड, राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकल्प और पर्युषणाकल्प। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन में छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले साधुओं की दस प्रकार की कल्पस्थिति स्थितकल्प के रूप में मान्य की गई है। यह धुतरजाकल्प दस स्थान में प्रतिष्ठित होता है। प्रथम प्रलम्बसूत्र और अंतिम षड्विधकल्पस्थितिसूत्र तक सूत्रकार तथा भाष्यकार द्वारा साधु के आचार-विचार संबंधी अनेक तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। उनके संदर्भ में उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग से भी विचार किया गया है। भाष्यकार के अनुसार उत्सर्ग में आपवादिक क्रिया तथा अपवाद में उत्सर्ग क्रिया करने वाला अर्हत् शासन की आशातना करता है और वह दीर्घसंसारी होता है। भाष्य के समापन में भाष्यकार ने मोक्षार्ह मुनि की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है-अरहस्यधारक-अतीव रहस्यमय शास्त्रों को धारण करने वाला, सूत्रों का पारगामी, अशठकरण-मायापद से विप्रमुक्त, तुलासदृश, समित-पांच समितियों से समायुक्त, कल्प की अनुपालना करने वाला, दीपन-स्वसमय की दीपना करने वाला, आलस्य छोड़कर भगवद्वाणी को जन-जन तक पहुंचाने वाला होता है। वही ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने वाला तथा संसार-भ्रमण को छिन्न करने वाला होता है। वह मोक्ष को प्राप्त होता है। १. भगवई श. १५७०। २. बृभा. गा. ५९४५, विस्तार हेतु देखें गा. ५९४६-५९४९। ३. बृभा. गा. ६३५७। ४. बृभा. गा. ६३६३। ५. बृभा. गा. ६३६४। ६. बृभा. गा. ६४८७। ७. बृभा. गा. ६४९०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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