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________________ १८ बृहत्कल्पभाष्यम् उनको सम्यक्त्व प्राप्त कराई तथा उन्हें निर्देश दिया कि वे अपने देश में जाकर श्रमणों के प्रति भद्रक बने रहें, उनके प्रति भक्ति भाव रखे।" महाराज सम्प्रति ने उन राजाओं से कहा- 'यदि तुम मुझे स्वामी मानते हो तो सुविहित श्रमणों को प्रणाम करो। मुझे द्रव्य नहीं चाहिए। मुझे केवल श्रमणों को प्रणमन करना प्रिय है। वह प्रियता आप करें।' इस प्रकार निर्देश देकर सम्प्रति राजा ने एकत्रित सभी राजाओं को विसर्जित कर दिया। वे राजा अपने राज्य में गए। उन्होंने अमारी की घोषणा करवाई। उसके बाद वे क्षेत्र साधुओं के लिए सुविहार क्षेत्र हो गए। २ साधुओं ने राजा से कहा कि अनार्य देशों के लोग साधुओं के आचार-विचार, कल्प्याकल्प को नहीं जानते। इस स्थिति में वहां विहार कैसे हो सकता है? इस समस्या का समाधान करने के लिए राजा सम्प्रति ने अपने सैनिकों को साधु-सामाचारी का प्रशिक्षण देकर अनार्य देशों में भेजा । श्रमण वेशधारी सैनिक अनार्य देशों में गए। उन्होंने वहां एषणा के दोषों से शुद्ध आहार लिया। इससे वे क्षेत्र सम्यक्भावित हो गए। उन देशों में मुनि सुखपूर्वक विहार करने लगे। उस समय से वे अनार्य देश भी भनक हो गए।' महाराज सम्प्रति का सैन्यबल अपूर्व था । उसकी सेना प्रबल योद्धाओं से आकीर्ण तथा सर्वत्र अप्रतिहत थी । उस सेना ने समस्त विपक्षी सेनाओं को जीत लिया। ऐसे सैन्यबल से अन्वित महाराज सम्प्रति ने साधुओं को कष्ट देने वाले आन्ध्र, द्रविड़ आदि देशों को चारों ओर से सुखविहार के लिए उपयुक्त बना दिया । " वाचना के लिए अपात्र बृहत्कल्पसूत्र में तीन व्यक्तियों को वाचना के लिए अयोग्य माना गया है-अविनीत, विगयप्रतिबद्ध और कलह को उपशांत नहीं करने वाला। इन्हें वाचना क्यों नहीं देनी चाहिए? इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार ने लिखा है कि अविनीत व्यक्ति बिना ज्ञान दिए भी स्तब्ध होता है। यदि उसे श्रुत दे दिया जाए तो फिर कहना ही क्या ? जो स्वयं नष्ट हो चुका है, वह दूसरों को नष्ट न करे, क्षत पर कोई नमक न छिड़के, इसलिए अविनीत को वाचना नहीं देनी चाहिए । गोयूथ स्वयं प्रस्थित है। अग्रगामी गोपाल जब उसको पताका दिखाता है तो उसका वेग बढ़ जाता है, यह श्रुति है। इसी प्रकार दुर्विनीत को ज्ञान देने से उसका अविनय बढ़ता ही है। रोग के तीव्रतर वेग में औषध शमनकारी नहीं होती और न वह निदान के अनुरूप ही होती है।" इसी प्रकार रसलोलुप और कलह को शांत नहीं करने वाला व्यक्ति भी वाचना के लिए अयोग्य है। अपात्रों / अयोग्यों को वाचना दी जाती है तो दूसरे शिष्य भी सोचते हैं, अहो ! अब हम भी ऐसे ही बनें। इस प्रकार दुर्विनय से प्रवर्तमान उनके द्वारा इहलोक और परलोक दोनों ही परित्यक्त होते हैं। इससे अनवस्था होती है। फिर कोई भी विनय आदि नहीं करता। " आतापना की साधना जैन मुनि के लिए आतापना एक प्रकार का तप है। प्राचीनकाल में अनेक मुनि सूरज की किरणों से तपी हुई शिला या धूली पर लेटकर आतापना लेते थे। इसी प्रकार दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूरज के सामने खड़े रहकर आतापना लेने की भी परम्परा रही है तेजोलब्धि की उपलब्धि के लिए निरूपित साधना की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग आतापना ही है। मंखलिपुत्र गौशालक द्वारा तेजोलेश्या की प्राप्ति कैसे होती है? इस प्रकार की जिज्ञासा सुनकर महावीर ने उसकी पूरी विधि बताई । तीर्थ की स्थापना के बाद गणधर गौतम को इस विषय की जानकारी दी गई, वह पूरा प्रसंग भगवती सूत्र में विस्तार से मिलता है। भगवान् महावीर ने तेजोलब्धि प्राप्त करने की प्रक्रिया बताते हुए कहा जो एक मुट्ठीभर ९. बृभा. गा. ३२८३,३२८४ । २. बृभा. गा. ३२८६, ३२८७ । ३. बृभा. गा. ३२८८ । ४. बृभा. गा. ३२८९ । Jain Education International ५. बृसू. ४।६। ६. बृभा. गा. ५२०१। ७. बृभा. गा. ५२०२ । ८. बृभा. गा. ५२०९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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