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पहला उद्देशक
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२९७२.उद्दहरे सुभिक्ख, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेण।
लहुगा पुण सुद्धपदे, जं वा आवज्जई जत्थ। ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष के चार भंग होते हैं(१) ऊर्ध्वदर तथा सुभिक्ष। (२) ऊर्ध्वदर असुभिक्ष। (३) सुभिक्ष न ऊर्ध्वदर। (४) न ऊर्ध्वदर और न सुभिक्ष। .
इनमें दूसरे और चौथे भंग में अध्वगमन करना चाहिए। पहले और तीसरे भंग में दर्प से कोई अध्वगमन करता है तो शुद्धपद में भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है तथा संयमविराधना आदि होने पर तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। २९७३.नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरित्तट्ठा एवमाइ गंतव्वं।
उवगरण पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ प्रथम तथा तृतीय भंग में इन कारणों से गमन विहित है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गमन करने वाले-जाने वाले तलिकादि उपकरण लेकर जाएं तथा पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाए। २९७४.सत्थे विविच्चमाणे, असंजए संजए तदुभए य।
मग्गंते जयण दाणं, छिन्नं पि हु कप्पई घेतुं॥ चार प्रकार के स्तेन (चोर) होते हैं१. असंयतप्रान्त ३. उभयप्रान्त २. संयतप्रान्त ४. उभयभद्रक।
असंयतप्रान्त स्तेन सार्थ को लूटते समय साथ वाले मुनियों से वस्त्र मांगते हैं। उस समय यतनापूर्वक दान करना चाहिए। वे स्तेन यदि फाड़ा हुआ वस्त्र भी प्रत्यर्पित करें तो उसे ग्रहण करना कल्पता है। २९७५.संजयभद्दा गिहिभद्दगा य पंतोभए उभयभद्दा।
तेणा होति चउद्धा, विगिंचणा दोसुं तू जइणं ।। स्तेन चार प्रकार के होते हैं१. संयतभद्रक परन्तु गृहस्थप्रान्त। २. गृहस्थभद्रक परन्तु संयतप्रान्त । ३. दोनों के लिए प्रान्त । ४. दोनों के लिए भद्रक।
दूसरे और तीसरे भंगवर्ती स्तेन यतियों के वस्त्रों का विवेचन-पृथक्करण करते हैं, उनके वस्त्र लूट लेते हैं। २९७६.जइ देंतजाइया जाइया व न वि देंति लहुग गुरुगा य।
सागार दाण गमणं, गहणं तस्सेव नऽन्नस्स॥ गृहस्थों के वस्त्र लूट लिए जाने पर यदि मुनि गृहस्थों के बिना मांगे ही उनको वस्त्र देते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त १. समनोज्ञ-समनोज्ञया-परस्परसदृशया सामाचार्या वर्तन्ते इति।
आता है और यदि मांगने पर भी नहीं देते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। गृहस्थों को प्रातिहारिक कहकर वह वस्त्र दे
और जिस पथ से गृहस्थ जाएं, उसी पथ से मुनि विहरण करें। यदि दूसरे मार्ग से जाते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। छिन्न हो जाने पर भी उसी वस्त्र का ग्रहण करे, दूसरे वस्त्र का नहीं। २९७७.दंडपडिहारवज्जं, चोल-पडल-पत्तबंधवज्जं च।
परिजुण्णाणं दाणं, उड्डाह-पओसपरिहरणा।। उन गृहस्थों को दंडपरिहार अर्थात् अत्यंत जीर्णकम्बल, चोलपट्ट, पडलक तथा पात्रबंध-इनको छोड़कर अन्य परिजीर्ण वस्त्र दे। यह दान गृहस्थों के उड्डाह तथा प्रद्वेष निवारण के लिए होता है। २९७८.धोयस्स व रत्तस्सव,
अन्नस्स वऽगिण्हणम्मि चउलहुगा। तं चेव घेत्तु धोउं,
परिभुजे जुण्णमुज्झेज्जा॥ गृहस्थ यदि उस वस्त्र को धो दे या रंग दे, तो भी उसी का ग्रहण करना चाहिए। दूसरा वस्त्र लेने पर अथवा उस धोए, रंगे वस्त्र को न लेने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त विहित है। अतः साधु उसी वस्त्र को ग्रहण कर, उसे धोकर, उसका परिभोग करे और जो अतिजीर्ण हो गया हो उसका परिष्ठापन कर दे। २९७९.सट्ठाणे अणुकंपा, संजय पडिहारिए निसिटे य।
असईअ तदुभए वा, जयणा पडिसत्थमाईसु॥ स्वस्थान अनुकंपा अर्थात् साधुओं के वस्त्र यदि लूट लिए गए हों तो साध्वियां अनुकंपा करे, वस्त्र दें। साधु उनसे प्रातिहारिक वस्त्र ग्रहण करें। यदि साध्वियों के वस्त्र लूट लिए गए हों तो साधुओं के लिए साध्वियां स्वस्थान हैं, अतः उन पर अनुकंपा कर उन्हें वस्त्रदान दें। उनको प्रातिहारिक वस्त्र नहीं अपने निज के वस्त्र दें। यदि निजक अधिक न हों तो प्रातिहारिक वस्त्र भी दिए जा सकते हैं। यदि साधु-साध्वी-दोनों के वस्त्र लूट लिए गए हों तो प्रतिसार्थ आदि में वस्त्रान्वेषण की यतना करनी चाहिए। २९८०.न विवित्ता जत्थ मुणी,समणी य गिही य जत्थ उडूढा।
सट्ठाणऽणुकंप तहिं, समणुन्नियरासु वि तहेव।। जहां साधुओं के वस्त्र नहीं लूटे गए किन्तु साध्वियां और गृहस्थों के वस्त्र लूट लिए गए हों तो स्वस्थान अर्थात् साध्वी वर्ग के प्रति अनुकंपा कर साधु उनको वस्त्रदान करे। साध्वियां दो प्रकार की हैं-समनोज्ञ' (सांभोगी) और
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