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अमनोज्ञ (असांभोगी)। दोनों के लिए पर्याप्त वस्त्र हों तो दोनों को दे अन्यथा स्वस्थान अर्थात् समनोज्ञ साध्वियों को दे । २९८१. लिंगट्ठ भिक्ख सीए, गिण्हंती पाडिहारियमिमेसु ।
अमणुन्नियरगिहीसुं, जं लब्द्धं तन्निभं दिति ॥ यदि साधु लूटे जा चुके हो तो वे लिंग के लिए रजोहरण और मुखवस्त्रिका, भिक्षा के लिए पात्रबंध और पटलक आदि तथा शीतरक्षा के लिए प्रावरण आदि प्रातिहारिक रूप में अमनोज्ञ या पार्श्वस्थ आदि से तथा गृहस्थों से ले सकते हैं। चोलपट्ट आदि जब प्रातिहारिक के सदृश प्राप्त हो उसे ग्रहण कर अमनोज्ञ आदि को प्रत्यर्पित कर दे ।
२९८२.उद्दूढे व तदुभए, सपक्ख परपक्ख तदुभयं होइ ।
अहवा वि समण समणी, समणुन्नियरेसु एमेव ॥ दोनों के मुषित होने पर यहां तदुभय (अर्थात् दोनों) के ये अर्थ हैं - स्वपक्ष और परपक्ष । अथवा श्रमण और श्रमणियां | अथवा समनोज्ञ और अमनोज्ञ । २९८३.अमणुन्नेतर गिहि- संजईसु असइ पडिसत्थ- पल्लीसु । तिuesट्ठा गहणं, परिहारिय एतरे चेव ॥ अमनोज्ञ, इतर अर्थात् पार्श्वस्थ आदि, गृहस्थ, साध्वीइनके वस्त्रों को चुरा लिए जाने पर ये प्रतिसार्थ अथवा पल्ली में वस्त्र की एषणा करे। तीन कार्यों के लिए प्रतिहारिक या निसृष्ट वस्त्र ग्रहण करे - लिंग, भिक्षा और शीतपरित्राण । २९८४. एवं तु दिया गहणं, अहवा रत्तिं मिलेज्ज पडिसत्थो ।
गीएसु रत्ति गहणं, मीसेसु इमा तहिं जयणा । इस प्रकार वस्त्र ग्रहण दिन में करे। यदि रात्री में प्रतिसा मिले और वहां सभी गीतार्थ हों तो रात्री में भी ग्रहण करे। यदि मुनि मंडली अगीतार्थमिश्र हो तो यह यतना है । २९८५. वत्थेण व पाएण व, निमंतएऽणुग्गए व अत्थमिए ।
आइच्चो उदिउ त्ति य, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ प्रतिसार्थ में यदि कोई सूर्योदय से पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात् वस्त्र अथवा पात्र ग्रहण के लिए निमंत्रण दे और वह सार्थ यदि रात्री में ही प्रस्थान कर रहा हो तो वे गीतार्थसंविग्न मुनि रात्री में ही वस्त्र ग्रहण कर सूर्योदय के समय मुनि मंडली से मिल जाते हैं।
२९८६. खंडे पत्ते तह दब्भचीवरे तह य हत्थपिहणं तु ।
अद्धाणविवित्ताणं, आगाढं सेसऽणागाढं ॥ साध्वियों के यदि वस्त्र लूट लिए गए हों तो उन्हें चर्मखंड या शाकपत्र आदि पहनने के लिए देने चाहिए। अथवा दर्भ को सघनरूप से ग्रथित कर अर्पित करना चाहिए। सर्वथा परिधान के अभाव में साध्वियां अपने गुह्यस्थान को हाथ से १. उडूढ - देशीशब्द, मुषित-लूट लिए गए।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
ढंक लें। अध्वगत मुषित साध्वियों का यह आगाढ़कारण है, शेष अनागादकारण है।
२९८७. असई निग्गया खुड्डगाइ पेसंति चउसु वग्गेसु ।
अप्पाहिंति वऽगारं, साहु व वियारमाइगयं ॥ प्रतिसार्थ अथवा पल्ली में वस्त्रों की प्राप्ति न होने पर अध्वनिर्गत साधु-साध्वी उद्यान में पहुंच कर क्षुल्लक मुनि या क्षुल्लिका साध्वी को गांव में इन चार वर्गों - संयत, संयती, श्रावक, श्राविका के पास भेजकर वस्तुस्थिति बतानी चाहिए। यदि क्षुल्लक साधु-साध्वी न हों तो गांववासी किसी गृहस्थ को अथवा गांव से विचारभूमी में आए हुए मुनि साथ संदेश भेजना चाहिए कि गांव के बाहर साधु-साध्वी स्थित हैं। मार्ग में उनके वस्त्र लूट लिए गए हैं। अतः उनके लिए योग्य वस्त्रों की व्यवस्था करें।
२९८८. खुड्डी थेराणऽप्पे, आलोगितरी ठवित्तु पविसंति ।
ते वि य घेत्तुमइगया, समणुन्नजढे जयंतेवं ॥ (जहां साध्वियां साधुओं को और साधु साध्वियों के लिए वस्त्र ले जाते हैं वहां यह विधि है - )
क्षुल्लिका साध्वी स्थविर साधु को वस्त्र दे आती है। क्षुल्लिका न हो तो मध्यमा या तरुण साध्वियां स्थविर साधुओं के आलोक में वस्त्रों को स्थापित कर गांव में प्रवेश कर जाती हैं। ( इसी प्रकार क्षुल्लक मुनि या अन्य मुनि स्थविरा साध्वी के पास वस्त्र स्थापित कर आते हैं।) वे मुनि साध्वी द्वारा दत्त वस्त्रों को पहन कर गांव में जाते हैं, वहां स्वयोग्य वस्त्रों का उत्पादन कर पहले वाले वस्त्र साध्वियों को पुनः अर्पित कर देते हैं। जहां समनोज्ञ मुनि न हों वहां यह यतना है।
२९८९.अद्वाणनिग्गयाई, संविग्गा सन्नि दुविह अस्सण्णी ।
संजइ एसणमाई, असंविग्गा दोण्णि वी वग्गा ॥ अध्वनिर्गत आदि, संविग्न, संज्ञी - श्रावक, असंज्ञी - दो प्रकार के । संयती, एषणा आदि, असंविग्न के दोनों वर्ग । (यह नियुक्ति गाथा है । व्याख्या आगे की गाथाओं में)। २९९०.संविग्गेतरभाविय, सन्नी मिच्छा उ गाढऽणागाढे ।
असंविग्ग मिगाहरणं, अभिग्गहमिच्छेसु विस हीला ॥ संज्ञी दो प्रकार के हैं-संविग्नभावित और असंविग्नभावित । मिथ्यादृष्टि के भी दो प्रकार हैं- आगादमिथ्यादृष्टि और अनागादमिथ्यादृष्टि । सबसे पहले संविग्नभावित संज्ञीश्रावकों में वस्त्र की एषणा करे, वहां न मिलने पर अनागाढ़ मिथ्यादृष्टि से वस्त्र प्राप्त करे, किन्तु असंविग्नभावित या आगादमिथ्यादृष्टि से याचना न करे। क्योंकि
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