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________________ ३०२ आलोचना, प्रतिक्रमण करने से शुद्ध हो जाता है और उसके विपुल निर्जरा होती है। २९६४. सोऊण य पन्नवणं, कयकरणस्सा गयाइणो गहणं । सीहाई चेव तिंग, तवबलिए देवयद्वाणं ॥ आचार्य की यह प्रज्ञापना सुनकर कृतकरण मुनि गदा आदि लेकर रात को जागता रहता है। वह सिंहत्रिक को भगा देता है या मार डालता है। उसके अभाव में जो मुनि तपोबलिक होता है, वह देवता को आहूत करने कायोत्सर्ग करता है। (सभी मुनि सो रहे थे। एक कृतकरण मुनि हाथ में गदा लेकर जाग रहा था। इतने में एक सिंह आ गया। मुनि ने उस पर प्रहार किया। वह वहां से कुछ दूरी पर गिरा और मर गया। दूसरा सिंह आया। मुनि ने सोचा, वही सिंह पुनः आ गया है। उस पर तीव्रता से प्रहार किया। वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरा सिंह आया मुनि ने तीव्रतम प्रहार किया और वह भी मर गया । रात्री सुखपूर्वक बीत गई ।) २९६५. हंत म्मि पुरा सीहं, खुड्याइ झ्याणि मंदथामो मि तिन्नाऽऽवाए सीहो, रत्तिं, पहओ मया न मओ ।। प्रातः वह गुरु के पास जाकर बोला- भंते! पहले मेरा शरीर शक्तिसंपन्न था। मैंने खडका ( हाथ के चपेटा) मात्रा से सिंह को मार डाला था। अब मेरे शरीर की शक्ति मंद हो गई है। रात्री में एक सिंह तीन बार आया मैंने उस पर तीन बार प्रहार किया, वह मरा नहीं, भाग गया। गुरु ने उसे मिच्छामि दुक्कडं का दंड दिया, क्योंकि उसका परिणाम शुद्ध था। २९६६. नितेहिं तिन्नि सीहा, आसन्ने नाइदूर दूरे य । निम्गयजीहा दिठ्ठा, स चावि पुट्टो इमं भणइ ॥ प्रभात में बाहर जाते समय आचार्य ने तीन सिंहों को मरे हुए देखा। उन तीनों की जिह्वा बाहर निकली हुई थी । एक सिंह निकट ही मरा पड़ा था, दूसरा कुछ दूरी पर और तीसरी उससे आगे मरा पड़ा था। आचार्य ने उस मुनि से पूछा ये तीन सिंह कैसे मरे ? वह बोला २९६७. मा मरिहिइति गाढं न आहओ तेण पठमओ दूरे। गाढतर बिइय तइओ, न य मे नायं जहन्नन्नो ॥ भंते! जब पहला सिंह आया, मैंने सोचा यह मर न जाए इसलिए उस पर गाढ़ प्रहार नहीं किया, हल्का प्रहार किया। वह बहुत दूर जाकर मर गया। दूसरी बार सिंह आया। मैंने सोचा वही पुनः आ गया है, इसलिए उस पर गाढ़ प्रहार किया वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरी बार १. वृतिकृता एतत् स्वतंत्रसूत्रं स्वीकृतम् । Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् सिंह के आने पर मैंने गाढतर प्रहार किया, वह निकट भूमी पर ही मर गया। मैं नहीं जान पाया कि ये पृथग् पृथम् तीन सिंह थे। २९६८. खमओ व देवयाए, उस्सग्ग करेइ जाव आउट्टा । रक्खामि जा पभायं, सुवंतु जइणो सुवीसत्था ॥ ऐसे कृतकरण मुनि के अभाव में मुनि देवता को आहूत करने के लिए कायोत्सर्ग करे। जब वह देवता आराधित हो जाता है, तब आकर कहता है-मुनिवर्य ! आप कायोत्सर्ग को संपन्न करें। प्रभात होने तक मैं आप सबकी श्वापदों से रक्षा करूंगा। आप सभी मुनि विश्वस्त होकर सुखपूर्वक सोएं। २९६९, जह सेज्जाऽणाहारो, वत्थादेमेव मा अइपसंगा। दियदिवत्थगहणं, कुज्जा उ निसिं अतो सुत्तं ॥ जैसे शय्या - वसति अनाहार है इसी प्रकार वस्त्र भी अनाहार है इसलिए रात्री में उनको ग्रहण करना कल्पता है। अतः अतिप्रसंग से दिन में देखा हुआ वस्त्र रात्री में ग्रहण न कर ले इसलिए यह सूत्र है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा रातो वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहेत्तए । नन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए । सा वि परिभुत्ता वा धोया वा रत्ता वा घट्टा वा मट्ठा वा संपधूमिया वा ।।' (सूत्र ४३) २९७०. रातो वत्थग्गहणे, चउरो मासा हवंति उन्घाया। आणाइणो य दोसा, आवज्जण संकणा जाव । रात्री में वस्त्र ग्रहण करने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं यावत् पांचों महाव्रत के प्रति आपत्ति तथा शंका उत्पन्न होती है। २९७१. विइयं विहे विवित्ता, पडिसत्थाई समिच्च रवणीए । ते य पए च्चिय सत्था, चलिहिंतुभए व इक्को वा ।। उत्सर्गतः रात्री में वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता, किन्तु द्वितीयपद - अपवाद में इन कारणों से ग्रहण किया जा सकता है । अध्वनिर्गत होने पर मार्ग में, चोरों द्वारा लूटे जाने पर या प्रतिसार्थवाह को प्राप्त कर रात्री में वस्त्र लिया जाता है। प्रातःकाल होते ही सार्थ और प्रतिसार्थ दोनों चले जायेंगे या दोनों में से कोई एक रवाना हो जाएगा यह सोचकर रात्री में वस्त्र ग्रहण करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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