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पहला उद्देशक
आचार्य उस मुनि की खरंटना करे। वह मुनि अपने उपकरण और पात्र लेकर बाहर चला जाए। यह उसको गच्छ से पृथक् करना केवल बहाना मात्र है। वह बाहर रहकर प्रत्युपेक्षा तथा प्रतिक्रमण करता है। वृषभ भावना को समझते हुए तथा इतर मुनि आचार्य को प्रसन्न करते हैं और तब आचार्य उस मुनि को पांच कल्याणक का प्रायश्चित्त देकर गच्छ में सम्मिलित कर लेते हैं।
२९५५. तुम्ह य अम्ह य अट्ठा, एसमकासी न केवलं सभया । खामेमु गुरु पविसउ, बहुसुंदरकारओ अहं ॥ वृषभ तथा इतर मुनि आचार्य से कहते हैं-आर्य इस मुनि ने आपके लिए तथा हम सबके लिए ऐसा किया था, केवल स्वयं के भयनिवारण के लिए नहीं । अतः आप इसे पुनः गच्छ में प्रवेश दें, हम सब आपसे क्षमायाचना करते हैं। यह हम सबके लिए बहुत कल्याणकारक हुआ है, मुनि भी और प्रतिश्रय भी ।
(गुरु कहते हैं- ओह! तुम सभी उसके पक्षधर हो
गए ।)
२९५६. अत्रे व विवेहि, अलमज्जो! अहव तुम्भ मरिसेमि तेसि पि होइ बलियं, अकज्जमेयं न य सुदंति ॥ गुरु कहते हैं - आर्य ! यह मुनि इस प्रकार करता हुआ अन्य मुनियों को भी बिगाड़ देगा। अब इससे हमारा बहुत हो चुका। (साधु कहते हैं-गरुदेव ! अब आगे यह इस प्रकार नहीं करेगा। आप इसे एक बार क्षमा करें।) आचार्य कहते हैं- यदि ऐसा है तो मैं तुम्हारी बात मानकर इसे गच्छ में लेता हूं।' यह सब सुनकर अन्यान्य अगीतार्थ मुनियों के भी यह भावना अत्यंत हृदय में समा जाती है कि ऐसा करना अकार्य है। फिर उनको सावद्य कार्य न करने की प्रेरणा देने पर वे व्यथा का अनुभव नहीं करते। २९५७. एसो विही उ अंतो, बाहि निरुद्धे इमो विही होइ ।
सावय तेणय पडिणीय देवयाए विही ठाणं ॥ यह विधि ग्राम में प्रविष्ट मुनियों के लिए कही गई है। ग्राम के बहिस्थित मुनियों की यह विधि होती है। अध्वनिर्गत मुनि विकाल में ग्राम पहुंचे। उस समय नगरद्वार निरुद्ध अर्थात् बंद हो गए। उस कारण से उन्हें बाहर रुकना पड़ा। यदि वहां श्वापद, स्तेन तथा प्रत्यनीक का भय हो तो देवता को आहूत करने के लिए विधिपूर्वक स्थान- कायोत्सर्ग करे । तथा कपाटवाले भूमीगृह अथवा देवकुल में ठहरे। वे स्थान कपाटवाले न मिले तो आवरणरहित स्थान में रहे। वे विद्या द्वारा द्वार को स्थगित कर दे, विद्या द्वारा दिशाओं को बांध दे, जिससे कि श्वापद
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आदि प्रवेश न कर सकें। विद्या के अभाव में अचित्त कंटक आदि से, उसके अभाव में मिश्र कंटक, उसके अभाव में सचित्त कंटक आदि से द्वार को स्थगित करे। उसके अभाव में 'गुरु आणा'- गुरु आज्ञा अर्थात् भगवती आज्ञा की प्ररूपणा यह है-आचार्य आदि के मारणान्तिक उपसर्ग उपस्थित होने पर जो मुनि समर्थ हो, वह अपने सामर्थ्य के अनुसार उस उपसर्ग के निवारण के लिए पराक्रम करे। २९५८. भूमिघर देउले वा, सहियावरणे व रहियआवरणे ।
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रहिए विज्जा अच्चित्त मीस सच्चित्त गुरु आणा ॥ २९५९. सकवाडम्मि उ पुब्विं, तस्सऽसई आणईति उ कवाडं । विज्नाए कंटियाहि व अचित्त चित्ताहि वि उयंति ॥ पहले सकपाटवाले भूमीगृह अथवा देवकुल में ठहरें । उसके अभाव में अकपाटवाले स्थान में ठहर कर अन्य स्थान से कपाट लाए। कपाट न मिलने पर विद्या से द्वार का स्थगन कर, या अचित्त, मिश्र या सचित्त कंटकों से स्थगित करे । २९६०. एएसिं असईए, पागार वई व रुक्ख नीसाए ।
परिखेव विज्ज अच्चित्त मीस सच्चित्त गुरु आणा ॥ भूमीगृह या देवकुल आदि न मिलने पर प्राकार, वृत्ति या वृक्ष की निश्रा में रहे। वहां भी विद्या से परिक्षेप का निर्माण करे। उसके अभाव में क्रमशः अचित्त, मिश्र या सचित्त कंटकों से परिक्षेप करे गुरु आज्ञा इस प्रकार है। २९६१. गिरि-नइ-तलागमाई, एमेवागम ठएंति विज्जाई ।
एग दुगे तिदिसिं वा, ठएंति असईए सव्वत्तो ॥ गिरि या नदी या तालाब आदि की निश्रा में रहे। इनमें जहां एक ही प्रवेश हो वहां रहे, उसके अभाव में दो दिशाओं अथवा तीन दिशाओं में प्रवेश हो वहां भी रहा जा सकता है। उनके आगम-प्रवेशमुख को विद्या आदि से स्थगित करे । इनके अभाव में खुले आकाश में रहना पड़े तो सभी ओर से विद्याप्रयोग से स्थगन करे या दिशा बंध करे।
२९६२. नाउमगीयं बलिणं, अविजाणंता व तेसि बलसारं ।
घोरे भयम्मि थेरा, भणति अविगीययेज्जत्थं ॥ २९६३.आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य चेइय विणासे ।
आलोइयपडिकंतो, सुद्धो जं निज्जरा विउला ॥ खुले आकाश में स्थित मुनि किसी अगीतार्थ मुनि क समर्थ जानकर अथवा साथवाले मुनियों के बलसार को जानते हुए, घोर भय उपस्थित होने पर स्थविर आचार्य अगीतार्थ मुनियों के स्थिरीकरण के लिए कहते आचार्य, गच्छ, कुल, गण, संघ या चैत्य का बमें उपस्थित होने पर उसका निवारण करने के लिए सार्थ साधु पराक्रम करता है और उसमें कोई दोष होता, वे
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