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=बृहत्कल्पभाष्यम् यदि गांव के बाहर स्थान न मिले और वहां स्तेनों का २९४९.गिहि जोइं मग्गंतो, मिगपुरओ भणइ चोइओ इणमो। भय हो तो सभी मुनि एक साथ गांव में प्रवेश कर लें। णाभोगेण मउत्तं, मिच्छाकारं भणामि अहं ।। अयतना होने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा विपरिणाम, यदि कोई मुनि अगीतार्थ मुनियों के सामने गृहस्थ से अविश्वास आदि वे ही दोष होते हैं।
प्रदीप की मांग करता है और कोई अगीतार्थ मुनि उसे कहता २९४५.अविगीयविमिस्साणं, जयण इमा तत्थ अंधकारम्मि। है यह सावध प्रवृत्ति क्यों कराते हो? तब मुनि कहता है
आणणऽणाभोगेणं, अणागयं कोइ वारेइ॥ मैंने अज्ञात अवस्था में ऐसा कह दिया। मैं उसका 'मिच्छामि अंधकारमय वसति में अगीतार्थमिश्र मुनियों की यह दुक्कडं' कहता हूं। यतना है-अगीतार्थ मुनि न जान पाएं, इस प्रकार अन्य किसी २९५०.एमेव जइ परोक्खं, जाणंति मिगा जहेइणा भणिओ। बहाने प्रदीप मंगाया जाए। यदि गृहस्थ न लाए तो उसके घर तत्थ वि चोइज्जंतो, सहसाऽणाभोगओ भणइ॥ जाकर कहा जाए, जिससे कि वह दीप लेकर आए। यदि कोई इसी प्रकार कोई मुनि अगीतार्थ मुनियों के परोक्ष में उसकी वर्जना करता है तो उसे शिक्षा दे।
गृहस्थ को इस सावध प्रवृत्ति के लिए कहता है और वे २९४६.अम्हेहि अभणिओ अप्पणो णु आओ णु अम्ह अट्ठाए। अगीतार्थ मुनि इसे जान जाते हैं कि इस मुनि ने गृहस्थ को
आणेइ इहं जोई, अयगोलं मा निवारेह॥ कहा है, और वह मुनि उस मुनि को सावध प्रवृत्ति न करने यदि कोई गृहस्थ वहां दीपक लेकर आता है और कोई की प्रेरणा देता है तो वह मुनि कहता है-मैंने सहसाकार या मुनि उसकी वर्जना करता है तो मुनि को कहना चाहिए हमने अजानकारी में कह दिया। इसका मैं 'मिच्छामि दुक्कडं' इसको दीपक लाने के लिए नहीं कहा है। यह अपने प्रयोजन करता हूं। के लिए अथवा हमारे लिए यहां दीपक ला रहा है तो हमें २९५१.गिहिगम्मि अणिच्छंते, सयमेवाणेइ आवरित्ताणं। इसकी चिन्ता क्यों करनी चाहिए? गृहस्थ लोहे के गोले के जत्थ दुगाई दीवा, तत्तो मा पच्छकम्मं तु॥ समान होता है। इसकी वर्जना मत करो।
गृहस्थ प्रदीप लाना नहीं चाहता तो मुनि स्वयं जाकर २९४७.गिहिणं भणंति पुरओ,
प्रदीप को आवृत कर ले आता है। वह वैसे घर से दीपक अइतमसमिणं न पस्सिमो किंचि। लाता है जहां दो-तीन दीपक जल रहे हो। जहां केवल एक ही आणंति जइ अवुत्ता,
दीपक हो उस घर से दीपक न लाए क्योंकि वहां पश्चातकर्म
तहेव जयणा निवारंते॥ की संभावना रहती है। यदि गृहस्थ स्वयं वहां दीपक नहीं लाते तो मुनि उनको २९५२.उज्जोविय आयरिओ, किमिदं अहगं मि जीवियट्ठीओ। कहते हैं-वसति में बहुत अंधेरा है। वहां कुछ भी दिखाई नहीं
आयरिए पन्नवणा, नट्ठो य मओ य पव्वइओ। देता। यदि ऐसा कहे बिना भी वे प्रदीप ले आते हैं तो बहुत प्रतिश्रय के उद्योतित होने पर आचार्य मुनि को कहते अच्छा। जो उसकी वर्जना करता है उसके प्रति वही यतना- हैं-'यह तुमने क्या किया?' वह कहता है-'मैं आज भी प्रेरणा है।
जीवितार्थी हूं।' तब आचार्य (मायापूर्वक) उसे कहते हैं२९४८.गंतूण य पन्नवणा, आणण तह चेव पुब्वभणियं तु।। प्रव्रजित होकर ऐसा कार्य करते हो तो सन्मार्ग से परिभ्रष्ट
भणण अदायण असई, पच्छायण मल्लगाईसु॥ और मृत-संयम जीवन से रहित हो। कैसा है तुम्हारा जीवित इतना कहने पर भी यदि गृहस्थ न समझे तो जाकर रहना? मुनि उन्हें स्पष्टरूप से प्रज्ञापित करे। तब वे यदि २९५३.तस्सेव य मग्गेणं, वारणलक्खेण निति वसभा उ। प्रदीप लाते हैं और कोई मुनि वर्जना करता है तो पूर्वोक्त
भूमितियम्मि उ दिद्वे, पच्चप्पिय मो इमा मेरा॥ विधि से मुनि को समझाए। यदि कोई मुनि गृहस्थ से उसी प्रदीप लाने वाले साधु के निवारण के मिष से उसके कहे-प्रदीप ले आओ और दूसरा मुनि उस मुनि से पीछे वृषभ निर्गत होते हैं। भूमीत्रिक को देख लेने पर तथा कहे-यह सावध प्रवृत्ति क्यों कराते हो? तब उसके समक्ष प्रदीप को प्रत्यर्पित कर देने पर यह मर्यादा है, सामाचारी है। मिथ्या दुष्कृत कहना चाहिए। यदि गृहस्थ प्रदीप लाना नहीं २९५४.खरंटण वेंटिय भायण, चाहता है तो गीतार्थ मुनि प्रदीप को मल्लक आदि से ढंक
गहिए निक्खिवण बाहि पडिलेहा। कर ले आए, जिससे कि वह अगीतार्थ मुनियों को वसभेहि गहियचित्ता, दृष्टिगोचर न हो।
इयरे पसाइंति कल्लाणं ।।
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