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________________ पहला उद्देशक २९९ २९३४.वितिगिट्ठ तेण सावय, आदि सभी परित्यक्त हो जाते हैं, क्योंकि दीपक के अभाव फिडिय गिलाणे व दुब्बल नई वा। में सर्पदंश, श्वाभक्षण आदि आत्मविराधना होती है। पडिणीय सेह सत्थे, २९३९.बाहिं काऊण मिए, गीया पविसंति पुंछणे घेत्तुं। न उ पत्ता पढमबिइयाई॥ देउल सभ परिभुत्ते, मग्गंति सजोइए चेव॥ मासकल्प के पश्चात् जिस गांव में जाना है, वह जो मृग-अगीतार्थ मुनि हों, उनको गांव के बाहर व्यतिकृष्ट-दूर है, मार्ग में स्तेनों और श्वापदों का भय है, बिठाकर गीतार्थ मुनि प्रोंछन-दारुदंडक लेकर पहले गांव में मार्ग से भटक गए हों, ग्लान और दुर्बल मुनि साथ में हैं, नदी प्रवेश करे और देवकुल, सभा आदि, जो काम में ली जा का पूर आ गया हो, प्रत्यनीक ने मार्ग अवरुद्ध कर दिया हो, रही हैं, जो ज्योति-दीप सहित हों, उनकी याचना करे। कोई शैक्ष प्राप्त होने वाला हो, वह जिसके साथ आ रहा है (यदि ज्योति न हो तो गृहस्थों से कहे या स्वयं जाकर वह सार्थ मंदगति से आ रहा है-इन कारणों से प्रथम द्वितीय लाएं। फिर उच्चार आदि भूमी की प्रत्युपेक्षा कर बहिस्थित या तृतीय-चतुर्थ प्रहर में भी वे वहां पहुंच नहीं सके अर्थात् मुनियों को बुला लें।)। रात्री में वहां पहुंचते हैं। उनको भी गांव में विधिपूर्वक प्रवेश २९४०.परिभुज्जमाण असई, सुन्नागारे वसंति सारविए। करना चाहिए, अविधि से नहीं। अहणुव्वासिय सकवाड निब्बिले निच्चले चेव॥ २९३५.अइगमणे अविहीए, चउगुरुगा पुव्ववन्निया दोसा। यदि परिभुज्यमान वसति की प्राप्ति न हो तो ‘सारवित' आणाइणो विराहण, नायव्वा संजमाऽऽयाए। प्रमार्जित शून्यगृह जो अभी-अभी शून्य हुआ है, जो कपाटअविधि से अतिगमन-प्रवेश करने पर चतुर्गुरु का सहित, बिलरहित और निश्चल है, उसकी गवेषणा करे। प्रायश्चित्त तथा पूर्ववर्णित दोष (षट्कायविराधना आदि), २९४१.जइ नाणयंति जोई, गिहिणो तो गंतु अप्पणा आणे। आज्ञाभंग तथा संयम और आत्मविराधना आदि दोष कालोभयसंथाराण भूमिओ पेहए तेणं॥ ज्ञातव्य हैं। यदि गृहस्थ ज्योति नहीं लाते हैं तो गीतार्थ मुनि स्वयं ले २९३६.सव्वे वा गीयत्था, मीसा वा अजयणाए चउगुरुगा। आए। उस प्रकाश में कालभूमी, संज्ञाभूमी, कायिकीभूमी आणाइणो विराहण, पुव्विं पविसंति गीयत्था॥ तथा संस्तारकभूमी-इन चारों की प्रत्युपेक्षा करे। यदि सभी मुनि गीतार्थ हों तो सभी प्रवेश करते हैं यदि २९४२.असई य पईवस्सा, गोवालाकंचु दारुदंडेणं। मिश्र हों और अयतना से प्रवेश करते हैं तो चतुर्गुरु का बिल पुंछणेण ढक्कण, मंतेण व जा पभायं तु॥ प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्म- यदि प्रदीप की व्यवस्था न हो तो मुनि गोपालकंचुक को विराधना होती है। उसमें यतना यह है-गीतार्थ पहले प्रवेश धारण कर दारुदंडक से वसति का प्रमार्जन करे। वहां करते हैं। बिलों को पादपोंछन से ढंक दे, अथवा मंत्र से सर्प आदि २९३७.जइ सव्वे गीयत्था, सव्वे पविसंति ते वसहिमेव।। का स्तंभन करे और प्रातः होते ही पादपोंछन आदि को विहि अविहीए पवेसो, मिस्से अविहीइ गुरुगा उ॥ निकाल ले। यदि सभी गीतार्थ हों तो सभी एक साथ वसति में प्रवेश २९४३.एमेव य भूमितिए, हरियाई खाणु-कंट-बिलमाई। करते हैं। यदि अगीतार्थमिश्र हो तो विधि या अविधि से दोसदुगवज्जणट्ठा, पेहिय इयरे पवेसंति॥ प्रवेश होता है। अविधि से प्रवेश करने पर चतुर्गुरु का पूर्वोक्त विधि गीतार्थ मुनियों की है। साथ में अगीतार्थ प्रायश्चित्त आता है। मुनि हों तो उनको गांव के बाहर स्थापित कर गीतार्थ मुनि २९३८.विप्परिणामो अप्पच्चओ य दुक्खं च चोदणा होइ। गांव में प्रवेश कर वसति को प्राप्त कर, वहां भूमीत्रिक अर्थात् पुरतो जयणाकरणे, अकरणे सव्वे वि खलु चत्ता॥ संज्ञाभूमी, कायिकीभूमी और कालभूमी-इन तीनों भूमियों की गीतार्थ मुनि यदि ज्योति दीपक आदि स्वयं लाने की प्रत्युपेक्षा करे, हरियाली, स्थाणु, कंटक, बिल आदि यतना करते हैं तो शैक्ष मुनियों के मन में विपरिणाम होता है प्रत्युपायों तथा दोषद्वय-संयम और आत्मविराधना के वर्जन और उनमें गीतार्थ मुनियों के प्रति अविश्वास हो जाता है। के लिए पूरी वसति का निरीक्षण कर बहिस्थित अगीतार्थ फिर उन शैक्ष मुनियों को सामाचरी की यथार्थ पालना के मुनियों को गांव में बुला ले। लिए प्रेरणा देना कष्टप्रद हो जाता है। और यदि गीतार्थ मुनि २९४४.ठाणासई य बाहिं, तेणगदोच्चा व सव्वे पविसंति। ज्योति-दीपक आदि की यतना नहीं करते हैं तो आचार्य गुरुगा उ अजयणाए, विप्परिणामाइ ते चेव॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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