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५४
गाथा संख्या
१९६३
१९६४
विषय
ग्लान साधु की शरीर शुश्रूषा संबंधी विधि |
ग्लान विषयक और वैद्य विषयक-दो प्रकार की अनुवर्तना ।
१९६५,१९६६ बाहर से आए हुए वैद्य द्वारा दान-दक्षिणा मांगने पर उसे विशिष्ट विधि द्वारा दातव्य | वास्तव्य वैद्य द्वारा दक्षिणा की याचना करने पर पश्चात्कृत व्यक्तियों द्वारा धन दिलाने की विधि । वास्तव्य और आगन्तुक वैद्यों द्वारा वस्त्र याचना करने पर उन्हें देने की विधि |
वैद्य को वस्त्र न मिलने पर न्यायालय द्वारा विहित वस्त्रों को देने की विधि ।
१९६९, १९७० वैद्य आदि के रुपये मांगने पर उसको देने की विधि अथवा अपवाद पद न्यायालय में जाने पर अहिरण्यक विधि ।
ग्लान के नीरोग हो जाने पर ग्लान और उसके प्रतिचारक को अपवाद आदि सेवन के कारण प्रायश्चित्त ।
१९६७
१९६८
१९७१
ग्लान के प्रायोग्य द्रव्यविषयक तथा वैद्यविषयक अनुवर्तना का उपसंहार ।
१९७३-१९८० ग्लान साधु को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के कारण तथा एक समुदाय के ग्लान साधु की सेवा के लिए दूसरे समुदाय में फेरबदली।
१९८१-१९८८ ग्लान की उपेक्षा करने वाले साधुओं और ग्लान की सेवा करवाने में आचार्य यदि उपेक्षा करते हैं। तो दोनों को प्रायश्चित |
१९७२
१९८९-१९९७ संयत के चार प्रकार । आठ स्थानों से ग्लान का परित्याग करने पर प्रायश्चित्त विधि | १९९८-२००१ आचार्य, कुल, गण द्वारा ग्लान की प्रतिचर्या करने का कालमान ।
२००२-२०१३ ग्लान का परित्याग करने की स्थिति होने पर भी परित्याग न करने का विधान ग्लान को छोड़ने की बात कहने पर भी प्रायश्चित्त । आचार्यों द्वारा मधुर आश्वासन । निर्ग्रन्थ मुनियों के गुण । ग्लान को न त्यागने के लाभ ।
२०१४,२०१५ वाचना के लिए यथालंदिक मुनियों के साथ प्रतिबंध तथा उनके साथ बंदन व्यवहार की विधि। २०१६, २०१७ आचार्य के स्थान पर यथालंदिक के रहने से दोष तथा उनके रहने की आचार्य की यथालंदिक मुनि के पास जाने की विधि |
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गाथा संख्या विषय
२०१८
२०१९
२०२०
२०२१
२०२२
२०२३
बृहत्कल्पभाष्यम्
यथालंदिक मुनियों द्वारा कृतिकर्म कब ? यथालंदिक मुनि और उनकी मास कल्प की मर्यादा।
एक वसति में एक मास से अधिक रहने पर दोष । अपवाद की स्थिति के वसति और भिक्षा विषयक यतना की अनुपालना ।
२०२४-२०२७मासकल्प में मास से अधिक, चतुर्मास के चार
मास से अधिक रहने पर प्रायश्चित्त । कालमर्यादा से अधिक एक स्थान में रहने से अनेक प्रकार के दोषों की विवेचना ।
२०२८-२०३३ आपवादिक कारणों के कारण काल मर्यादा से अधिक भी एक क्षेत्र में रहा जा सकता है। वहां वसति विभाग से भिक्षाचर्या की विधि । सूत्र ७
२०३४ - २०४६ ग्राम, नगर आदि तथा किल्ले के अन्दर और बाहर दो विभाग में वसति होने पर ऋतुबद्ध काल में अन्दर और बाहर मिलाकर दो मास एक क्षेत्र में रहा जा सकता है। तृण, फलक आदि बाहर ले जाने की विधि । अविधिपूर्वक ग्रहण करने में दोष और प्रायश्चित्त
वृद्ध यथालंविक मुनि के प्रति आचार्य की वाचना देने की मर्यादा।
यथालंदिक मुनि के पास आचार्य के जाने पर उनके भक्तपान करने की विधि ।
आचार्य के गमन की असमर्थता में विविध स्थानों में वाचना देने की पद्धति ।
सूत्र ८
२०४७ निर्ग्रन्थियों की निर्ग्रन्थ के समान वक्तव्यता । २०४८, २०४९ निर्ग्रन्थियों के गणधर की प्ररूपणा आदि की द्वार
गाथा ।
२०५२
२०५०,२०५१ संयतियों का गणधर कैसा हो ? उसके लक्षण । साध्वियों के प्रायोग्य क्षेत्र की गवेषणा गणधर द्वारा करने का विधान |
२०५८
२०५९
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२०५३-२०५५ साध्वियों द्वारा क्षेत्र प्रत्युपेक्षा करने से निष्पन्न दोष तथा आचार्य को प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष ।
२०५६,२०५७ आर्याओं के लिए प्रत्युपेक्षणीय क्षेत्र । श्रमणियों की वसति का विवेक ।
मतान्तरानुसार श्रमणी वसति का स्वरूप ।
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