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________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय १९१४ ग्लान साधु के लिए वैद्य के पास जाने संबंधी द्वार गाथा। १९१५-१९१८ ग्लान साधु को वैद्य के पास ले जाने की विधि अथवा वैद्य को ग्लान के पास लाने की विधि। १९१९,१९२० गमनद्वार-ग्लान साधु के लिए वैद्य के पास कौन जाए इसका विवेचन। १९२१ प्रमाणद्वार और उपकरणद्वार-ग्लान साधु के लिए वैद्य के पास जाने वाला साधु कैसा होना चाहिए, उसके लक्षण। १९२२-१९२४ शकुनद्वार-वैद्य के पास जाते समय प्रशस्त अप्रशस्त शकुन विचार। १९२५ वैद्य के पास जाने वाला बातचीत करे या मौन रखे? गाथा संख्या विषय १८७०-१८७३ ग्लान्यद्वार-ग्लान साधु का समाचार सुनने पर सभी कार्य छोड़कर वहां जाने का साधु का कर्तव्य। नहीं जाने पर प्रायश्चित्त विधान। १८७४ ग्लान द्वार की वक्तव्यता संबंधी द्वार गाथा। १८७५,१८७६ ग्लान साधु की सेवा के लिए जाने का विधान। उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त। १८७७-१८८२ ग्लान की सेवा महान् निर्जरा का हेतु-इस प्रकार की श्रद्धा से सेवा करने वालों के लिए सेवा का प्रकार। १८८३,१८८४ इच्छाकारद्वार-बिना बुलाए सेवा के लिए न जाना अथवा जाने पर वैयावृत्य करने का निषेध करने में आरोपणा रूप प्रायश्चित्त का विधान और महर्द्धिक राजा का दृष्टान्त। १८८५ अशक्तद्वार-ग्लान की सेवा करने में अपनी असमर्थता प्रकट करने वाले को शिक्षा। १८८६,१८८७ सुखितद्वार-ग्लान साधु की सेवा करने में दुःख मानने वाले को प्रायश्चित्त। १८८८,१८८९ अवमानद्वार-ग्लान परिचर्या के लिए जाने पर हम भी अवमान उद्गम आदि दोषों के भागी होंगे। अर्थात् ये दोष वहां होंगे इस प्रकार कहने वालों के लिए प्रायश्चित्त विधान। १८९०-१८९९ लुब्धद्वार-ग्लान साधु की सेवा में जाने वाले । लोलुप साधु उस क्षेत्र को बिगाड़ देते हैं। तब वहां ग्लान प्रायोग्य द्रव्य मिलना भी कठिन हो जाता है। ऐसे साधुओं के लिए प्रायश्चित्त का विधान। १९००-१९०६ अनुवर्तना ग्लानस्थद्वार-ग्लान की अनुवर्तना क्यों ? ग्लान साधु के लिए पथ्यापथ्य कैसे लाना, कहां से लाना, कहां रखना और उसे सुरक्षित रखने के लिए गवेषणा कैसे करनी आदि का विवेचन। १९०७ वैद्यानुवर्तना-स्वयं जानकार साधु ग्लान की स्वयं चिकित्सा करे अथवा वैद्य जानकार हो तो वैद्य को १९२६,१९२७ वैद्य के पास गीतार्थ साधु से क्रमशः श्रावक तक जाए और ग्लान साधु की बीमारी का क्रमवार निवेदन करे। १९२८,१९२९ वैद्य द्वारा रोगी के लिए कथनीय सारे कार्य करणीय। १९३०,१९३१ वैद्य के कहे अनुसार पथ्य की व्यवस्था करनी आवश्यक किन्तु यदि वे न मिले तो पुनः वैद्य से परामर्श १९३२ ग्लान साधु को बिना देखे औषधि का निर्देश नहीं किया जा सकता इस दृष्टि से वैद्य का उपाश्रय में आगमन। १९३३ उपाश्रय में आगत वैद्य के साथ आचार्य आदि की यतना। १९३४-१९३६ अभ्युत्थान द्वार, आसन द्वार और दर्शनाद्वार उपाश्रय में वैद्य के आने पर आचार्य का उठना उनको आसन देना तथा ग्लान साधु को दिखाने की विधि । अविधि होने पर दोष और प्रायश्चित्त। १९३७ चिकित्सा के चतुष्पाद। ग्लान साधु के लिए औषधि का प्रबंध-कौन करे? प्रश्न का समाधान। १९३८-१९४७ भृतिद्वार, आहारद्वार और ग्लानाहारद्वार-वैद्य की व्यवस्था तथा औषधि आदि व्यवस्था करने की विधि। १९४८-१९६० गांव से वैद्य को बुलाने की विधि। उसके खान पान आदि के लिए विशिष्ट विधि। १९६१-१९६२ ग्लान अथवा असंयमी वैद्य का वैयावृत्य क्यों ? प्रश्न का समाधान। पूछे। १९०८-१९१० रोगोपचार के लिए उपवास चिकित्सा का विधान। १९११,१९१२ वैद्य के आठ प्रकार तथा मतान्तर के अनुसार वैद्य के आठ प्रकार। १९१३ संविग्न गीतार्थ वैद्य अथवा कुशल वैद्य को छोड़कर असंविग्न अगीतार्थ वैद्य और अकुशल वैद्य से चिकित्सा कराने पर प्रायश्चित्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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