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गाथा संख्या विषय
१६६०-१६६९ प्रतिलेखना द्वार - वस्त्रादिक के प्रतिलेखन का काल, प्रतिलेखन के दोष, प्रायश्चित्त तथा प्रतिलेखन के अपवाद आदि।
१६७०- १६७३ निष्क्रमणद्वार - गच्छवासी आदि की बाहर जाने और कितनी बार जाने की विधि ।
१६७४-१६९१ प्राभृतिकाद्वार - सूक्ष्म और बादर प्राभृतिका का वर्णन | गृहस्थ आदि के निमित्त तैयार अथवा साधुओं के निमित्त बने हुए घर, अथवा क्सति में रहना अथवा न रहने संबंधी विधि और प्रायश्चित्त ।
१६९२- १७०४ भिक्षाद्वार- विविध एषणाओं से भक्त पानक ग्रहण करने की विधि। गच्छवासी मुनि कब कितनी बार भिक्षा के लिए जाए? अथवा समुदाय रूप या अकेला जाए? एकाकी भिक्षाटन के दोष और प्रायश्चित्त विधान भिक्षार्थ पात्र आदि की मर्यादा |
१७०५-१७४७ कल्पकरणद्वार - लेपकृत, अलेपकृत, द्रव्यार्थ पात्रकल्प ] लेपकृत अथवा अलपकृत द्रव्यों का विश्लेषण | विकृति अविकृति की विवेचना । पात्र लेप की विधि और उसका गुण । लेप का कल्प न करने पर प्रायश्चित्त तथा अनेक दोषों का प्रसंग पानक लाने के लिए बार-बार गृहपति के घर जाने पर स्व पर दोष । पात्र को धोने का कारण और उससे संबंधित प्रश्नोत्तरी ।
१७४८-१७६७ गच्छशतिकादिद्वार-सात प्रकार की सौवीरिणी
का वर्णन प्रत्येक के सात साल भेद कृत कारापित से प्रत्येक के दो दो भेद कुल ९८ भेद । अवान्तर अनेक भेद आदि की विवेचना।
१७६८-१७७० परिहरणा अनुयानद्वार-तीर्थंकर के समय सैंकड़ों गच्छों के एक साथ होने पर आधाकर्मिक दोषों का परिहरण कैसे ? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य द्वारा रथयात्रा आदि के द्वारा समाधान ।
१७७१,१७७२ अनुयान रथयात्रा में जाने की विधि - रथयात्रा यदि नगर में हो तो वहां जाने पर ईर्यासमिति के दोष |
रथयात्रा में पहुंचने के बाद दोषों का वर्णन करने के लिए द्वार गाथा |
१७७४- १७७७ चैत्यद्वार-चार प्रकार के चैत्यों का स्वरूप और
उनका विवेचन |
१७७३
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गाथा संख्या विषय
१७७८-१७८३ आधाकर्मद्वार - रथयात्रा के मेले में जाने वाले साधुओं को लगने वाला आधाकर्मिक दोष । उदगमदोष द्वार और शैशवार-रथयात्रा के मेले में जाने से साधुओं को लगने वाला उद्गम दोष और शैक्ष मुनियों की पथभ्रष्टता। स्त्रीद्वार और नाटकद्वार - रथयात्रा में जाने वाले साधुओं को स्त्री, नाटक देखने से लगने वाला दोष । संस्पर्शनद्वार- रथयात्रा में जाने से साधुओं को स्त्री आदि के स्पर्श से लगने वाला दोष । तन्तुद्वार-रथयात्रा में जाने से चैत्य का प्रमार्जन न होने पर प्रतिमाओं पर मकड़ी, मकड़ी का जाला भ्रमरी के घर आदि हटाने पर साधुओं को लगने वाला दोष तथा प्रायश्चित्त विधान |
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बृहत्कल्पभाष्यम्
१७८८, १७८९ क्षुल्लकद्वार और निर्धर्मकार्यद्वार रथयात्रा के मेले में जाने से पार्श्वस्थ मुनियों, क्षुल्लकों को
अलंकृत देखकर मैले, कुचेले क्षुल्लकों का पतित होना। समाधान देने वालों को धन आदि देने पर अनुमोदना दोष, नहीं देने पर वाद विवाद में वृद्धि और साधुओं का संघ से निष्कासन ।
१७९०-१८०१ वे कौन से कारण जिनसे रथयात्रा में जाना आवश्यक होता है, उनका वर्णन ।
१८०२-१८१५ रथयात्रा में जाने वाले मुनि के लिए करणीय आवश्यक निर्देश - जैसे चैत्यपूजा, भिक्षाचर्या की विधि आदि आदि ।
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पुरः
: कर्मद्वार - पुरः कर्म के स्वरूप के लिए द्वार
गाथा ।
१८१७-१८२० पुरः कर्म क्या? आचार्य द्वारा समाधान ।
१८२१ - १८२९ पुरःकर्म किसके और कब लगता है ? पुरः कर्म दोष संबंधी अष्टभंगी । पुरःकर्म किसलिए किया जाता है ? पुरः कर्म करने के पश्चात् उसके कल्पने का निरूपण । पुरः कर्म और उदकाद्रक दोष में
अन्तर ।
१८३० आरोपणा द्वार - पुरः कर्म लेने संबंधी प्रायश्चित्त । १८३१-९८६९ परिहारणाद्वार सात प्रकार का अविधिनिषेध | पुरः कर्म लेने का निषेध और उससे संबंधित सात प्रकार के शिष्यों के सात अविधि निषेध रूप आदेश- प्रकार पुरःकर्म लेने संबंधी आठ विधिनिषेध | लौकिक व्यवहार में पुरः कर्म विषय
में ब्रह्महत्या का दृष्टान्त |
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