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________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय क्षपक, योगवाही और अगीतार्थ को कब और कहां किसको भेजने का विधान। भेजने और न भेजने पर प्रायश्चित्त विधान। १४७१,१४७२ गच्छ के रहने के लिए योग्य क्षेत्र की तलाश और वहां गमनविधि। १४७३-१४८९ उपद्रव रहित और अपाय रहित स्थान की गवेषणा तथा भिक्षा, औषध, उपाश्रय आदि की सुलभता-दुर्लभता आदि की गवेषणा। कौनसा प्रशस्तक्षेत्र कौन सा अप्रशस्तक्षेत्र। १४९०-१५०० श्रमण के पांच प्रकार। वसति की खोज। वास्तुविज्ञान के द्वारा वसति का परीक्षण। कौनसी वसति में लाभ तथा कौनसी में अलाभ ? उच्चार- प्रस्रवण आदि अनुज्ञात प्रदेश में करने का विधान। १५०१-१५१० शय्यातर की अनुमति से वसति में रहने का विधान अन्यथा नहीं। अतिथि मुनि के आतिथ्य सत्कार करने की विधि। महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा क्यों ? कैसे? उसके मांगलिक आमांगलिक की विचारणा। १५११,१५१२ गच्छवासी मुनियों द्वारा यथालंदिक मुनियों के लिए क्षेत्र की गवेषणा। १५१३-१५२० प्रतिलेखित क्षेत्र की अनुज्ञात विधि। १५२१-१५३० क्षेत्र-प्रत्युपेक्षकों द्वारा आचार्य के समक्ष क्षेत्र के गुण दोष आदि का निवेदन और गमनयोग्य क्षेत्र में जाने की निर्णय विधि। १५३१-१५४४ विहार करने से पूर्व शय्यातर को पूछने की विधि। बिना पूछे आज्ञाभंग आदि दोष और प्रायश्चित्त । विधिपूर्वक वसति के स्वामी को उपदेश और विहार के समय का सूचन। १५४५-१५५० विहार के लिए शकुन अपशकुन का चिंतन। १५५१-१५५३ विहार करते समय शय्यातर को धर्मकथन। आचार्य, बाल साधु आदि की उपधि वहन करने का निर्देश। १५५४ रात्री में विहार करणीय-अकरणीय की विवेचना। १५५५-१५६१ अनुज्ञात क्षेत्र में रहने की कालमर्यादा। अननुज्ञात क्षेत्र में निवास करने पर प्रायश्चित्त विधान। १५६२-१५६४ ग्राम प्रवेश करने की विधि। १५६५-१५६८ प्रशस्त शकुन और अप्रशस्त शकुनों की व्याख्या। १५६९-१५७२ आचार्य की वसति प्रवेश की विधि तथा धर्मकथी मुनि का कर्तव्य। गाथा संख्या विषय १५७३-१५७६ वसति प्रवेश के पश्चात् आचार्य के द्वारा सामाचारी और दान आदि कुलों की स्थापना की व्यवस्था। १५७७,१५७८ भक्तार्थियों की भक्तपान ग्रहण करने की विधि। १५७९-१५८१ गीतार्थ मुनियों द्वारा विविध कुलों की जानकारी तथा उनके गमनागमन की व्यवस्था। व्यवस्था न करने पर प्रायश्चित्त। १५८२-१५८८ आचार्य द्वारा स्थापनाकुलों की व्यवस्था। उनमें जाने का विधान तथा स्थापना कुलों में अनेक संघाटक जाने के दोष। १५८९,१५९० प्राघूर्णक साधुओं के चार प्रकार। १५९१ स्थापनाकुलों में न जाने के दोष। दृष्टान्त द्वारा उसकी पुष्टी। १५९२-१६०१ स्थापना कुलों में जाने योग्य और न जाने योग्य साधुओं का लक्षण। दोषयुक्त साधुओं को वहां भेजने पर अनेक प्रकार के दोषों की उत्पत्ति तथा भिक्षाटन के लिए जाने वाले मुनियों के गुण। १६०२-१६०८ श्रावकों को गोचरी की चर्या बताने के लाभ तथा एषणा दोषों की जानकारी द्वारा दोषों से बचाव। १६०९,१६१० प्रायोग्य द्रव्य के दो प्रकार। उनको ग्रहण करने की विधि। १६११-१६१४ एक गच्छ की स्थापनाकुलों में भिक्षाग्रहण की सामाचारी तथा देश-काल की अपेक्षानुसार भिक्षा के समय में भिक्षा-ग्रहण करने का प्रावधान। १६१५-१६२२ अनेक गच्छों की स्थापनाकुलों में भिक्षाग्रहण की विधि। १६२३-१६२६ दस प्रकार की सामाचारियां तथा स्थविरकल्प विषयक २७ द्वारों का उल्लेख। १६२७-१६३३ स्थविरकल्पी मुनियों की सामाचारी, श्रुत, संहनन, उपसर्ग, आतंक, वेदना, स्थंडिल, वसति आदि का विस्तार से वर्णन। १६३४-१६४७ स्थविरकल्पी मुनियों की क्षेत्र, काल, चारित्र, लेश्या आदि द्वारों से स्थिति। १६४८-१६५५ अभिग्रह के चार प्रकार। उनके आधार पर स्थविरकल्पी मुनियों के अभिग्रह का स्वरूप। १६५६-१६५९ गच्छवासी मुनियों की अतिरिक्त सामाचारी संबंधी द्वार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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