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________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् अतिशेष अर्थात् अतिशायी अध्ययन (महापरिज्ञा, स्वामित्व, करण तथा अधिकरण-इनसे एक (एक वचन) अरुणोपपात आदि) तथा भूतवाद--दृष्टिवाद का अध्ययन अथवा बहुत्व (बहुवचन) के आधार पर नाम और स्थापना स्त्रियों के लिए अनुज्ञात नहीं है। क्योंकि स्त्रियां तुच्छ, अनुयोग के अतिरिक्त शेष अनुयोगों का प्रत्येक के छह-छह गौरवबहुल, अस्थिर इन्द्रियों वाली तथा धृति से दुर्बल होती हैं। भेद होते हैं। जैसे-द्रव्य का, द्रव्यों का, द्रव्य से, द्रव्यों से, १४७. सुणतीति सुयं तेणं, सवणं पुण अक्खरेयरं चेव। द्रव्य में तथा द्रव्यों में अनुयोग द्रव्यानुयोग है। इसी प्रकार तेणऽक्खरेयरं वा, सुयनाणे होति पुव्वं तु॥ क्षेत्र, काल, वचन तथा भाव अनुयोगों के (प्रत्येक के) छह__ जो सुना जाता है वह श्रुत है। श्रवण अक्षर का भी होता छह भेद होते हैं। है और अनक्षर का भी होता है। इसलिए श्रुतज्ञान की १५३. दव्वस्स उ अणुओगो, जीवहव्वस्स वा अजीवस्स। प्ररूपणा में पहले अक्षर तथा अनक्षर (अक्षरश्रुत तथा एक्केक्कम्मि य भेया, हवंति दव्वाइया चउरो॥ अनक्षरश्रुत) का ग्रहण किया गया है। द्रव्यानुयोग दो प्रकार का है-जीव द्रव्य का तथा अजीव १४८. इत्थं पुण अहिगारो, सुयनाणेणं जतो हवति तेणं। द्रव्य का। प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार-चार सेसाणमप्पणो वि य, अणुवयोग पईव दिळंतो।। प्रकार का होता है। मंगल के निमित्त पांच ज्ञानों की प्ररूपणा की गई थी। १५४. दव्वेणिक्वं दव्वं, संखातीतप्पदेसमोगाढं। उनमें भी श्रुतज्ञान का अधिकार है, प्रसंग है। क्योंकि काले अणादिनिहणं, भावे नाणाइयाऽणंता॥ श्रुतज्ञान से ही शेष ज्ञानों का तथा अनुयोग का कथन होता द्रव्य से जीव द्रव्य एक है, क्षेत्र से असंख्यप्रदेशावगाढ है। यहां प्रदीप का दृष्टांत वक्तव्य है। (जैसे प्रदीप घट आदि है, कालतः अनादि अनंत तथा भावतः ज्ञान आदि पर्याय पदार्थों का तथा स्वयं का प्रकाशक होता है वैसे ही श्रुतज्ञान अनंत है। जैसे-अनंत ज्ञानपर्याय, अनंत दर्शनपर्याय, अनंत शेष ज्ञानों तथा स्वयं का अनुयोग कारक है।) चारित्रपर्याय तथा अनंत अगुरुलघुपर्याय। १४९. निक्खेवेगट्ठ निरुत्त विहि पवित्ती य केण वा कस्स। १५५. एमेव अजीवस्स वि, परमाणू दव्वमेगदव्वं तु। तहार भेय लक्खण, तदरिह परिसा य सुत्तत्थो। खेत्ते एगपएसे, ओगाढो सो भवे नियमा। अनुयोग का निक्षेप, एकार्थक, निरुक्त, विधि, प्रवृत्ति, कौन १५६. समयाइ ठिति असंखा, ओसप्पिणीओ हवंति कालम्मि अनुयोग करे, किसका अनुयोग, अनुयोग के द्वार, उनके भेद, वण्णादि भावऽणंता, एवं दुपदेसमादी वि॥ सूत्र का लक्षण, उस सूत्र के योग्य, परिषद् तथा सूत्रार्थ यह इसी प्रकार अजीव द्रव्य का भी अनुयोग कहना चाहिए। द्वारगाथा का शब्दार्थ है। विस्तार आगे की गाथाओं में। जैसे परमाणु द्रव्यतः एक है, क्षेत्रतः नियमतः एक १५०. निक्खेवो नासो त्ति य, एगटुं सो उ कस्स निक्खेवो। प्रदेशावगाढ़ है, कालतः जघन्य स्थिति एक आदि समय तथा अणुओगस्स भगवओ, तस्स इमे वन्निया भेया॥ उत्कृष्टतः असंख्य अवसर्पिणीया-उत्सर्पिणीया होती हैं। निक्षेप और न्यास एकार्थक हैं। वह निक्षेप किसका करना भावतः उनमें अनंत वर्णपर्यव, अनंत गंधपर्यव, यावत् अनंत चाहिए? आचार्य कहते हैं भगवान अनुयोग का निक्षेप करना स्पर्शपर्यव होते हैं। इसी प्रकार द्विप्रदेशी आदि स्कंधों में चाहिए। उसके ये भेद वर्णित हैं। होता है। १५१. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य वयण भावे य। १५७. दव्वाणं अणुयोगो, जीवमजीवाण पज्जवा नेया। एसो अणुओगस्स उ, निक्खेवो होइ सत्तविहो। तत्थ वि य मग्गणाओ, णेगा सट्ठाण परठाणे॥ अनुयोग का यह सात प्रकार का निक्षेप होता है दो प्रकार के द्रव्यों का अनुयोग होता है-जीव द्रव्य का १. नामानुयोग ५. कालानुयोग और अजीव द्रव्य का। ये द्रव्य पर्यायात्मक होते हैं। उनको २. स्थापनानुयोग ६. वचनानुयोग जानना चाहिए। स्वस्थान और परस्थान में उन पर्यायों की ३. द्रव्यानुयोग ७. भावानुयोग। मार्गणा अनेक होती हैं।' ४. क्षेत्रानुयोग १५८. वत्तीए अक्खेण व, करंगुलादीण वा वि दव्वेण। १५२. सामित्त-करण-अहिगरणतो य एगत्त तह पुहत्ते य। अक्खेहि उ दव्वेहिं, अहिगरणे कप्प कप्पेसु॥ नामं ठवणा मोत्तुं, इति दव्वादीण छब्भेया॥ वर्ती (खटिका) की शलाका, अक्ष अथवा अंगुली से जो १. नैरयिक और असुरकुमार देवों के पर्याय अनन्त हैं। प्रश्न है, यह किस लोकाकाशप्रदेश तुल्यप्रदेशवाले होने के कारण। स्थिति से आधार पर कहा जाता है? दोनों द्रव्यार्थतया तुल्य हैं, प्रत्येक एक चतुःस्थानपतित, भावतः षट्स्थानपतित-इनमें दोनों तुल्य हैं। द्रव्य होने के कारण। प्रदेशार्थतया भी तुल्य हैं, प्रत्येक इसलिए दोनों में प्रत्येक के पर्याय अनन्त हैं आदि (व.प्र. ४८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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