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________________ पहला उद्देशक = वहां तो और अनेक मुनि आए हए होंगे। वहां भक्तपानी का अवश्य ही संक्लेश होगा। हम भी वहां अपना निर्वाह नहीं कर सकेंगे। वहां के वास्तव्य मुनि उस ग्लान के कार्य में आकुलीभूत होकर आगंतुक कितने मुनियों का आतिथ्य कर पायेंगे? हम भी वहां अवमान, उद्गम आदि दोषों के भागी होंगे अर्थात् ये दो वहां होंगे। वहां इस प्रकार कहने वालों के चार मास का गुरुक प्रायश्चित्त आता है। १८९० अम्हे मो निज्जरट्ठी, अच्छह तुब्भे वयं से काहामो। अत्थि य अभाविया णे, ते वि य णाहिति काऊण। ग्लान वाले क्षेत्र को प्रचुर अन्न-पान, वाला जानकर कुछेक लोलुप संत वहां जाते हैं और वहां के मुनियों को कहते हैं हम निर्जरार्थी हैं। हम ग्लान की वैयावृत्त्य करेंगे। इसलिए आप उस वैयावृत्त्य से निवृत्त हो जाएं। हमारे साथ अभावित शैक्ष मुनि भी हैं। वे भी हमें वैयावृत्त्य करते हुए देखकर, वैयावृत्त्य करना जानेंगे। १८९१.एवं गिलाणलक्खेण संठिया पाहण त्ति उक्कोसं। मग्गंता चमढिंती, तेसिं चारोवणा चउहा।। ___ इस प्रकार ग्लान के मिष से वहां संस्थित होकर प्राघूर्णक रूप में जानकर लोग उन्हें उत्कृष्ट भक्त-पान देते हैं। वे अन्य-अन्य उत्कृष्ट द्रव्य की मार्गणा करते हुए वहां रहते हैं और उस क्षेत्र को बिगाड़ देते हैं। अब ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य मिलना भी कठिन हो जाता है। उन मुनियों के ये चार प्रकार की आरोपणा प्राप्त होती है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। १८९२.फासुगमफासुगे वा, अचित्त चित्ते परित्तऽणते य। असिणेह-सिणेहकए, अणहारा-ऽऽहार लहु-गुरुगा॥ क्षेत्र की उद्वेजना के कारण ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती। तब मुनि यदि प्रासुक-एषणीय अथवा अप्रासुकअनेषणीय भक्त-पान का अथवा अचित्त, सचित्त, परित्तवनस्पति, अनंत वनस्पति, अस्नेह, सस्नेह, अनाहार, आहार आदि भक्त-पान के लिए अवभाषण करता है या रातवासी रखता है, तो वह अनेक गुरु-लघु प्रायश्चित्तों का भागी होता है। (प्रासुक की अवभाषणा आदि में चार लघुक, अप्रासुक के चार गुरुक, अचित्त में चार लघु, सचित्त में चार गुरुक, परित्त में चार लघुक, अनन्त में चार गुरुक, अस्नेह में चार लघुक, सस्नेह भी चार गुरुक, अनाहार में चार लघुक और आहार में चार गुरुक ये प्रायश्चित्त आते हैं।) यह द्रव्य निष्पन्न प्रायश्चित्त है। १८९३.लुन्द्रस्सऽब्भंतरतो, चाउम्मासा हवंति उग्घाता। बहिया य अणुग्घाया, दव्वालंभे पसज्जणया॥ लोलुपता के वशीभूत होकर जो क्षेत्र को उद्धेजित कर देता है और उस मुनि को यदि क्षेत्र के अभ्यन्तर में ग्लान प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता तो उस मुनि को चार उदघात अर्थात् चार लघुमास का और यदि क्षेत्र के बाहर भी वह द्रव्य प्राप्त नहीं होता तो उसे चार अनुद्धात अर्थात् गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यहां ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की अप्राति के कारण ‘पसजना' अर्थात् प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। १८९४.खेत्तबहि अद्धजोअण, वुड्डी दुगुणेण जाव बत्तीसा। चउगुरुगादी चरिमं, खेत्ते काले इमं होइ॥ क्षेत्र के बाहर अर्द्धयोजन से आरंभ कर क्षेत्र की दुगुने परिमाण से वृद्धि बत्तीस योजन तक करे। इनमें चतुर्गुरु आदि प्रायश्चित्त से चरम अर्थात् पारांचिक तक प्रायश्चित्त प्राप्त हो जाता है। यह क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त है। कालविषयक प्रायश्चित्त इस प्रकार का है। १८९५.अंतो बहिं न लब्भइ, ठवणा फासुग महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ प्रकारान्तर से क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त जब क्षेत्र के भीतर और बाहर ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता तब प्रासुक की स्थापना की जाती है। इसका प्रायश्चित्त है चार लघु। उससे ग्लान की अनागाढ़ परितापना होती है तो चार गुरु, महती दुःखासिका हो तो षडलघु, मूच्र्छा हो जाने पर षड्गुरु, प्राण कृच्छ्र हो जाएं तो छेद, उच्छ्रास कुछ हो जाए तो मूल, मारणांतिक समुद्घात होने पर अनवस्थाप्य और ग्लान के कालगत हो जाने पर पारांचिक। १८९६.पढमं राइ ठविते, गुरुगा बिइयादिसत्तहिं चरिमं । परितावणाइ भावे, अप्पत्तिय-कूवणाईया॥ कालविषयक प्रायश्चित्त-स्थापना की पहली रात में चतुर्गुरु, दूसरी से सातवीं रात्री तक प्रायश्चित्त की वृद्धि होते होते अंतिम प्रायश्चित्त पारांचिक तक बढ़ जाता है। परितापन आदि भाव से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी होता है। परितापित होकर वह ग्लान अप्रीतिक करता है, कूजन आदि करता है तो चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। १८९७.अंतो बहिं न लब्भइ, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ जब क्षेत्र के भीतर और बाहर ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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