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=बृहत्कल्पभाष्यम्
यदि ग्लान का उपाश्रय दूर हो तो सूत्रपौरुषी संपन्न कर श्लाघा करना दुःखप्रद होता है, दुष्कर होता है। अतः बिना अर्थपौरुषी शिष्य से दिलाते हैं। यदि वह प्रतिश्रय बहुत दूर बुलाए मैं कैसे जा सकता हूं। हो तो दोनों पौरुषियां शिष्य से दिलाते हैं। आगाढ़योगवाही स्थविरों ने इस प्रसंग में महर्द्धिक राजा का दृष्टांत दिया मुनि ग्लान वाले क्षेत्र में या अन्यत्र हों तो आचार्य उन्हें कहते और मुनि को सविस्तार चतुर्गुरु की आरोपणारूप प्रायश्चित्त हैं-आर्य! काल का शोधन करो। वे यथावत् काल ग्रहण कर, दिया। जितने दिनों का कालशोधन किया है उतने दिनों के स्थविर बोले-जैसे वह ब्राह्मण राजा द्वारा बुलाए जाने की उद्देशनकालों को आचार्य उस ग्लान के स्वस्थ हो जाने पर प्रतीक्षा में मिलने वाले धन से वंचित रह गया, वैसे ही हे उसे एक दिन में ही उद्दिष्ट कर देते हैं।
मुने! तुम भी अभ्यर्थना की प्रतीक्षा में महान निर्जरा लाभ से १८८२.निग्गमणे चउभंगो, अद्धा सव्वे वि निंति दोण्हं पि। वंचित हो जाओगे।
भिक्ख-वसहीइ असती, तस्साणुमए ठविज्जा उ॥ १८८५.किं काहामि वराओ, अहं खु ओमाणकारओ होहं। क्षेत्र से निर्गमन की चतुर्भगी है
___ एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा। १ वास्तव्य मुनियों का संस्तरण होता है, आगंतुकों का मैं सर्वथा वराक-अशक्त हूं तो वहां ग्लान-परिचर्या में नहीं।
जाकर क्या करूंगा? मैं वहां जाकर अवमानारक ही होऊंगा। २. आगंतुक मुनियों का संस्तरण होता है, वास्तव्य का । इस प्रकार स्थविरों के सामने जो कहता है, उसको चार नहीं।
गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३. दोनों का संस्तरण नहीं होता।
१८८६.उव्वत्त-खेल-संथार-जग्गणे पीस-भाणधरणे य। ४. दोनों का संस्तरण होता है।
तस्स पडिजग्गयाण व, पडिलेहेउं पि सि असत्तो।। संस्तरण न होने की स्थिति में वास्तव्य और आगंतुक स्थविर कहते हैं-आर्य! तुम ऐसा क्यों कहते हैं। क्या मुनियों में से आधे-आधे निर्गमन करते हैं। तृतीय भंग में तुम ग्लान का उद्वर्तन करना, खेलमल्ल को भस्म से दोनों के आधे-आधे अथवा सभी निर्गमन कर देते हैं। यह भरना, संस्तारक बिछाना, रात्री में जागरण करना, औषध सारा निर्गमन भिक्षा तथा वसति के अभाव में जानना चाहिए। आदि पीसना, भोजन-भाजनों को धारण करना, ग्लान तथा वहां ग्लान की सन्निधि में ग्लान द्वारा अनुमत मुनियों को उसके परिचारकों की उपधि आदि की प्रत्युपेक्षा करना क्या रखना चाहिए।
तुम ये सारे कार्य करने में भी अशक्त हो? १८८३.अभणितो कोइ न इच्छइ, पत्ते थेरेहिं होउवालंभो। १८८७.सुहिया मो त्ति य भणती, दिÉतो महिड्डीए, सवित्थरारोवणं कुज्जा।
अच्छह वीसत्थया सुहं सव्वे। १८८४.बहुसो पुच्छिज्जंता, इच्छाकारं न ते मम करिंति।
एवं तत्थ भणते, पडिमुंडणा य दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा।
पायच्छित्तं भवे तिविह।। कोई मुनि बिना कहे ग्लान की वैयावृत्त्य करने के लिए ग्लान की परिचर्या का प्रसंग आने पर यदि कोई कहता उद्यत नहीं होता। एक बार कुलस्थविर, गणस्थविर या है-हम इस क्षेत्र में सुखपूर्वक रह रहे हैं। सभी यहां विश्वस्त संघस्थविर किसी कारणवश वहां आए और उस मुनि को होकर सुखपूर्वक निवास करें। वहां जाकर अपने आपको उपालंभ देते हुए कहा-तुम प्रत्यासन्न ग्राम में ग्लान की दुःखी क्यों करना चाहते हो? जो इस प्रकार कहता है प्रतिचर्या के लिए क्यों नहीं गए? उस मुनि ने कहा-मैंने उसको तीन प्रकार का प्रायश्चित्त आता है। (यदि आचार्य बार-बार वहां के साधुओं को पूछा। परन्तु उन्होंने मेरा इस प्रकार कहते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु, उपाध्याय कहे तो उन्हें इच्छाकार नहीं किया-वैयावृत्त्य की मेरी इच्छा होते हुए भी चतुर्लधु और भिक्षु कहे तो मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है।) मुझे नहीं बुलाया। दूसरी बात है कि मैं बिना उनके बुलाए १८८८.भत्तादिसंकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थ न तरामो। वहां गया, परन्तु उन्होंने मेरी प्रतिमुंडना कर दी-मुझे
काहिंति केत्तियाणं, तेणं चिय तेसु अद्दन्ना॥ वैयावृत्त्य करने का निषेध कर डाला। प्रतिमुंडना से मुझे महद् १८८९.अम्हेहिं तहिं गएहिं, ओमाणं उग्गमाइणो दोसा। दुःख होता है। 'मैं ग्लान की जैसी वैयावृत्त्य करता हूं, वैसी एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा। वैयावृत्त्य करना दूसरा नहीं जानता'-इस प्रकार आत्मा की ग्लान-परिचर्या की बात सुनकर कुछ मुनि यह कहें कि १. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ६७
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