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पहला उद्देशक = भंगों में ग्रहण नहीं कल्पता। अलेपकृत तथा शुष्क द्रव्यों से संबंधित निरवशेष में भी ग्रहण कल्पता है। १८७०.सग्गामे सउवसए, सग्गामे परउवस्सए चेव।
खेत्ततो अन्नगामे, खेत्तबहि सगच्छ परगच्छे॥ १८७१.सोऊण ऊ गिलाणं, उम्मग्गं गच्छ पडिवहं वा वि। ___ मग्गाओ वा मग्गं, संकमई आणमाईणि॥
अपने ग्राम में, अपने उपाश्रय में, स्वग्राम के अन्य के उपाश्रय में, स्वक्षेत्र में अथवा ग्रामान्तर में भिक्षाचर्या के लिए जाते समय, क्षेत्र के बाहर जाते समय इन स्थानों में रहते हुए अपने गच्छ वाले अथवा परगच्छ वाले किसी मुनि को 'ग्लान है'-ऐसा सुने और सुनकर भी यदि मुनि उन्मार्ग से या प्रतिमार्ग से या गृहीत मार्ग से अन्य मार्ग से संक्रामित होकर जाता है तो उस मुनि के आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। १८७२.सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए।
जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गरुए स चउमासे। मुनि मार्ग में जाते हुए, नगर में प्रवेश करते हुए अथवा भिक्षाचर्या में घूमते हुए यदि 'अमुक मुनि ग्लान है' ऐसा सुने तो सभी कार्य छोड़कर वह ग्लान के पास पहुंचे। यदि ऐसा नहीं करता है तो उसे चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त आता है। १८७३.जह भमर-महुयरिगणा,
निवतंती कुसुमियम्मि चूयवणे। इय होइ निवइअव्वं,
गेलन्ने कइयवजढेणं॥ जिस प्रकार भ्रमरगण तथा मधुकरीगण कुसुमित आम्रखंड में मकरंद के लोभ से आते हैं वैसे ही मुनि भी निर्जरा लाभ का आकांक्षी होकर मायारहित हो ग्लान की परिचर्या के लिए तत्काल उसके पास पहुंचे। १८७४.सुद्धे सड्डी इच्छकारे, असत्त सुहिय ओमाण लुद्धे य।
अणुअत्तणा गिलाणे, चालण संकामणा तत्तो॥ शुद्ध, श्रद्धी, इच्छाकार, अशक्त, सुखित, अपमान, लुब्ध तथा अनुवर्तना, चालना, संक्रामणा-ये ग्लानविषयक कहने चाहिए। यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे। १८७५.सोऊण ऊ गिलाणं, जो उवयारेण आगओ सुद्धो।
जो उ उवेहं कुज्जा, लग्गइ गुरुए सवित्थारे। जो ग्लान के विषय में सुनकर उपचार से ग्लान के पास आ जाता है, वह शुद्ध है। जो उपेक्षा करता है, वह ग्लानारोपणा से युक्त चार गुरुमास के प्रायश्चित्त का भागी होता है। १८७६.उवचरइ को णतिन्नो, अहवा उवचारमित्तगं एइ।
उवचरइ व कज्जत्थी, पच्छित्तं वा विसोहेइ॥
उपचार पद की व्यख्या-जहां ग्लान है वहां जाकर पूछता हे-आपमें कौन अतिन्न अर्थात् ग्लान है ? अथवा उपचारमात्रलोकोपचार निभाने के लिए ग्लान के पास जाता है अथवा प्रयोजनवश ग्लान की सेवा करता है अथवा ग्लान के पास न जाने पर प्रायश्चित्त आएगा, अतः प्रायश्चित्त की विशोधि के लिए वह ग्लान के पास जाता है। यह सारा उपचार है। १८७७.सोऊण ऊ गिलाणं, तूरंतो आगओ दवदवस्स।
संदिसह किं करेमी, कम्मि व अट्ठे निउज्जामि।। १८७८.पडिचरिहामि गिलाणं, गेलन्ने वावडाण वा काह।
तित्थाणुसज्जणा खलु, भत्ती य कया हवइ एवं ।। ग्लान की सेवा करने से मुझे महान् निर्जरा का लाभ मिलेगा। ऐसा सोचने वाला श्रद्धावान होता है। वह ग्लान के विषय में सुनकर सारे कार्य छोड़कर, त्वरित गति से शीघ्र ही ग्लान के पास पहुंचता है और वहां के उपचारकों से अथवा आचार्य से पूछता है-भंते ! मुझे आदेश दें कि मैं ग्लान के विषय में क्या करूं? ग्लान से संबंधित किस प्रयोजन में आप मुझे नियुक्त करना चाहेंगे? मैं इसी प्रयोजन से यहां आया हूं। मैं ग्लान की प्रतिचर्या करूंगा। अथवा ग्लान की सेवा में व्याप्त मुनियों की वैयावृत्त्य करूंगा। इस प्रकार करने पर तीर्थ की अनुवर्तना और भगवान् की भक्ति होती है। १८७९.संजोगदिट्ठपाढी, तेणुवलद्धा व दव्वसंजोगा।
सत्थं व तेणऽधीयं, वेज्जो वा सो पुरा आसि॥ ग्लान की परिचर्या के लिए जाने वाला वह मुनि संयोगदृष्टपाठी-औषधद्रव्यों के मिश्रण-योग का ज्ञाता हो, द्रव्यसंयोगों का ज्ञान विशिष्ट वैद्यकशास्त्रों के ज्ञाता से प्राप्त किया हो अथवा चरक-सुश्रुत आदि वैद्यक शास्त्र उसने पढ़े हों। अथवा गृहस्थाश्रम में वह वैद्य रहा हुआ हो, इसलिए वहां के वास्तव्य मुनि उसे विसर्जित न करें। १८८०.अत्थि य से योगवाही,
गेलन्नतिगिच्छणाए सो कुसलो। सीसे वावारेत्ता,
तेगिच्छं तेण कायव्वं॥ यदि आगन्तुक मुनि के गच्छ में योगवाही मुनि हैं, वह स्वयं ग्लान की चिकित्सा में कुशल है, तो वह शिष्यों को सूत्रार्थ पौरुषी के कार्य में व्याप्त कर स्वयं को चिकित्साकार्य में लगा दे। १८८१.दाऊणं वा गच्छइ, सीसेण व वायएहि वा वाए।
तत्थऽन्नत्थ व काले, सोहिए सव्वुहिसइ हटे॥ सूत्र और अर्थ की दोनों पौरुषियों को संपन्न कर वह ग्लान के समीप जाता है और उसकी चिकित्सा करता है।
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