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आचार्य कहते हैं-प्रेरक! तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत इन्द्र के दृष्टांत से हम अपना मत प्रस्तुत करते हैं
इन्द्र ने ब्रह्महत्या की। उससे भयभीत होकर वह कुरुक्षेत्र में प्रविष्ट हो गया। ब्रह्महत्या बाहर स्थित होकर इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगी। उसने सोचा-'यहां से निकलने पर मैं इन्द्र को पुनः ग्रहण कर लूंगी।' इसी प्रकार हमारा भी संयम कुरुक्षेत्र है। जब जीव संयम से बाहर निकलता है तब वह कर्मबंध से गृहीत हो जाता है। (वहां से निर्गत न होने पर पहले और चौथे भंग में वह गृहीत नहीं होता।) १८६०.जे जे दोसाययणा, ते ते सुत्ते जिणेहिं पडिकुट्ठा।
ते खलु अणायरंतो, सुद्धो इहरा उ भइयव्वो॥ दोषों के जो जो आयतन हैं, वीतराग भगवान् ने सूत्रों में उनका निषेध किया है। जो उन स्थानों का आचरण नहीं करता वह शुद्ध है। जो इनका आचरण करता है उसके विकल्प है। १८६१.का भयणा जइ कारणि,
जयणाए अकप्प किंचि पडिसेवे। तो सुद्धो इहरा पुण,
न सुज्झए दप्पओ सेवं॥ वह विकल्प क्या है? जो कारणवश पुरःकर्म आदि किंचिद् अकल्प्य की यतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है वह शुद्ध है। जो दर्प से अयतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है वह शुद्ध नहीं होता। १८६२.समणुन्नापरिसंकी, अवि य पसंगं गिहीण वारिता।
गिण्हति असढभावा, सुविसुद्धं एसियं समणा॥ समनुज्ञापरिशंकी वे मुनि होते हैं-जो पुरःकर्म के दोष से भीत होकर उसका परिहार करते हैं। पुरःकर्म भिक्षा लेने पर गृहस्थ के पुनः पुरःकर्म करने का प्रसंग आता है। अतः उसका निवारण करते हुए, अशठभाव के कारण, सुविशुद्ध एषणीय का ग्रहण करते हैं। १८६३.किं उवघातो हत्थे, मत्ते दव्वे उदाहु उदगम्मि।
तिन्नि वि ठाणा सुद्धा, उदगम्मि अणेसणा भणिया॥ शिष्य प्रश्न करता है-पुरःकर्म करने पर क्या हाथ का उपधात अनेषणीयता होती है अथवा मात्रक की अथवा द्रव्य की अथवा उदक की। आचार्य कहते हैं-तीनों स्थान अर्थात् हाथ, मात्रक और द्रव्य शुद्ध हैं, अनेषणीय नहीं हैं। किन्तु उदक में अनेषणीयता कही गई है। १८६४.जम्हा तु हत्थ-मत्तेहिं कप्पती तेहिं चेव तं दव्वं।
__ अत्तट्ठिय परिभुत्तं, परिणत तम्हा दगमणेसिं॥ जो द्रव्य आत्मार्थित होने पर भुक्तशेष है, अप्काय के
बृहत्कल्पभाष्यम् परिणत हो जाने पर उसको उन्हीं हाथ और पात्र से लेना कल्पता है। अतः वे अनेषणीय नहीं हैं। केवल उदक ही अनेषणीय है। १८६५.किं उवघातो धोए, रत्ते चोक्खे सुइम्मि व कयम्मि।
अत्तट्ठिय-संकामियगहणं गीयत्थसंविग्गे।। शिष्य वस्त्रविषयक प्रश्न करता है क्या मुनि के लिए वस्त्र को धोने, रंगने, उज्ज्व ल करने अथवा शुचि करने में उपघात-अनेषणीयता है? आचार्य कहते हैं-इन चारों में से किसी में भी उपघात नहीं है, केवल उदक में उपघात है। वही वस्त्र यदि आत्मार्थित हो अथवा संक्रामित हो-दूसरों को दे दिया गया हो, उसे गीतार्थ या संविग्न मुनि ही ग्रहण कर सकता है, अन्य नहीं। १८६६.गीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गिण्हई गीतो।
संविग्गग्गहणेणं, तं गिण्हतो वि संविग्गो।। गीतार्थ द्वारा ग्रहण करना यह सूचित करता है कि आत्मार्थित अथवा संक्रामित वस्त्र गीतार्थ ग्रहण करता है, अगीतार्थ नहीं। संविग्न द्वारा ग्रहण करना यह सूचित करता है कि संविग्न-मोक्षाभिलाषी ही उसे ग्रहण करता है. असंविग्न नहीं। १८६७.एमेव य परिभुत्ते, नवे य तंतुग्गए अधोयम्मि।
उप्फुसिऊणं देते, अत्तट्ठिय सेविए गहणं ।। जो वस्त्र गृही पहन लेता है वह परिभुक्त कहलाता है। जो नया है, तन्तुद्गतमात्र है-ये अधौत हों, उदक के केवल छींटे दिए हुए हों, तो उन्हें ग्रहण करना नहीं कल्पता। वे यदि स्वयं द्वारा भुक्त हों तो उनका ग्रहण किया जा सकता है। १८६८.संसट्ठमसंसट्टे, य सावसेसे य निरवसेसे य।
हत्थे मत्ते दव्वे, सुद्धमसुद्धे तिगट्ठाणा॥ संसृष्ट, असंसृष्ट, सावशेष, निरवशेष-इनसे हस्त, मात्रक और द्रव्य विषय में आठ भंग-विकल्प होते हैं। तीन भंग शुद्ध होते हैं और शेष अशुद्ध। आठ भंग ये हैं
(१) संसृष्ट हस्त, संसृष्ट मात्रक सावशेष द्रव्य। (२) संसृष्ट हस्त, संसृष्ट मात्रक निरवशेष द्रव्य। (३) संसृष्ट हस्त, असंसृष्ट मात्रक सावशेष द्रव्य। (४) संसृष्ट हस्त, असंसृष्ट मात्रक निरवशेष द्रव्य।
इसी प्रकार संसृष्ट हाथ से भी चार भंग होते हैं। १८६९.पढमे भंगे गहणं, सेसेसु य जत्थ सावसेसं तु।
अन्नेसु उ अग्गहणं, अलेव-सुक्खेसु ऊ गहणं॥ इन आठ विकल्पों में पहला भंग तीनों पदों से शुद्ध होने के कारण उसमें ग्रहण करना शुद्ध है। शेष भंगों में भी जिन में द्रव्य सावशेष है, उसमें ग्रहण कल्पता है। निरवशेष पदयुक्त
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