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=बहत्कल्पभाष्यम्
मिलता तब अनागाढ़ परितापना होती है। उसका प्रायश्चित्त अभी अकाल है, वेला होने पर हम ला देंगे। परंतु यह न कहें है चतुर्लघु। आगाढ़ परितापना होती है तो चतुर्गुरु, महती कि हम नहीं देंगे। दुःखासिका हो तो षडलघु, मूर्छा होने पर षड्गुरु, प्राण १९०२.तत्थेव अन्नगामे, वुत्थंतरऽसंथरंत जयणाए। कृच्छ्र होने पर छेद, उच्छ्रास कुछ होने पर मूल, मारणांतिक असंथरणेसणमादी, छन्नं कडजोगि गीयत्थे। समुद्घात होने पर अनवस्थाप्य और ग्लान के कालगत हो ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य की उसी गांव में अन्वेषणा करे। वहां जाने पर पारांचिक।
प्राप्त न होने पर अन्य ग्राम में उसकी अनुवर्तना करे। यदि वह १८९८.अंतो बहिं न लब्भइ,
अन्यग्राम दूर हो तो बीच वाले गांव में रात रहकर दूसरे दिन संथारग महय मुच्छ किच्छ कालगए। वह ले आए। यदि वह अपर्याप्त हो तो यतनापूर्वक एषणादोषों चत्तारि छ च्च लहु-गुरु,
के आधार पर पंचक परिहानि से ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की
छेदो मूलं तह दुगं च॥ गवेषणा करे। प्रतिदिन यदि ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लाना पड़े तो अति उद्वेजित क्षेत्र के भीतर और बाहर ग्लान-प्रायोग्य ___कृतयोगी मुनि अप्रकटरूप से वह ले आए। संस्तारक नहीं मिलता तब ग्लान के अनागाढ़ परितापना में १९०३.पडिलेह पोरुसीओ, वि अकाउं मग्गणा उ सग्गामे। चतुर्लघु, आगाढ़ में चतुर्गुरु......शेष यावत् पारांचिक तक खित्तंतो तदिवस, असइ विणासे व तत्थ वसे॥ पूर्ववत्।
प्रतिलेखना करके सूत्रार्थ पौरुषियों को बिना किए ही १८९९.परिताव महादुक्खे, भुच्छामुच्छे य किच्छपाणगते। अपने ग्राम में ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की मार्गणा करे। वहां न
किच्छुस्सासे य तहा, समुघाए चेव कालगते॥ मिलने पर क्षेत्रान्त परग्राम में जाकर मार्गणा करे। उस द्रव्य पूर्व गाथाओं में परितापनपद तथा समुद्घातपद नहीं हैं। को लेकर उसी दिन लौट आए। यदि क्षेत्र दूर हो और उसी इसलिए प्रस्तुत गाथा में वे पद दे दिए गए हैं-लोलुपतावश दिन न आया जा सके और वह विनाशी द्रव्य हो तो वहीं रहे कोई मुनि क्षेत्र को उद्वेजित कर देता है, तब क्षेत्र के भीतर और दूसरे दिन आ जाए। या बाहर ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता। तब अनागाढ़ १९०४.खित्तबहिया व आणे, विसोहिकोडिं वतिच्छितो काढे। परितापना होती है। इसमें चतुर्लघु, आगाढ़ परितापना में
पइदिवसमलब्भंते, कम्मं समइच्छिओ ठवए। चतुर्गुरु, महती सुखासिका में षडलघु, मूर्छा में षड्गुरु, क्षेत्र के बाहर से भी ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य ले आए। इस कृच्छ्र प्राण में छेद, कुछ उच्छ्रास में मूल, मारणांतिक प्रकार जब प्रायश्चित्त के अनुलोम से क्रीतकृत, अभ्याहृत समुद्घात में अनवस्थाप्य और ग्लान के प्राणान्त में आदि विशोधिकोटि को व्यतिक्रांत कर देते हैं तब ग्लान के पारांचिक।
लिए औषध का काढ़ा स्वयं करे या दूसरों से कराए। यदि १९००.अणुयत्तणा गिलाणे, दव्वट्ठा खलु तहेव विज्जट्ठा।। प्रतिदिन वह प्राप्त न हो और आधाकर्म भी समतिक्रांत हो
असतीइ अन्नओ वा, आणेउं दोहि वी कुज्जा॥ जाता है तो शुद्ध-अशुद्ध द्रव्य का उत्पादन कर ग्लान के लिए द्रव्य के प्रयोजन से जैसे ग्लान की अनुवर्तना की उसे स्थापित कर दे। जाती है, वैसे ही वैद्य की भी अनुवर्तना करनी चाहिए। १९०५.उव्वरगस्स उ असती, यदि स्वग्राम में ग्लानप्रायोग्य द्रव्य न हो और वैद्य की
चिलिमिणि उभयं च तं जह न पासे। प्राप्ति न हो तो दूसरे ग्राम से भी दोनों की अनुवर्तना करनी
तस्सऽसइ पुराणादिसु, चाहिए।
ठविंति तदिवस पडिलेहा॥ १९०१.जायंते उ अपत्थं, भणंति जायामो तं न लब्भइ णे। उस द्रव्य की स्थापना किसी अपवरक में करे। अपवरक
विणियट्टणा अकाले, जा वेल न बॅति उन देमो॥ न हो तो चिलिमिलि बांधकर ऐसे स्थान में रखें जहां से यदि ग्लान अपथ्य द्रव्य की याचना करे तब उसे साधु ग्लान और अगीतार्थ मुनि उसे न देख सके। यदि यह भी कहे-हम उसकी याचना कर ला देते परन्तु कहीं भी हमें उस शक्य न हो तो पुराण अर्थात् पश्चात्कृत आदि के घर में उसे द्रव्य की प्राप्ति नहीं हुई। अथवा ग्लान के आगे पात्रों को स्थापित करे और उसका प्रतिदिन' प्रत्युपेक्षा करे। लेकर जाए और कुछ काल पश्चात् विनिवर्तना-प्रत्यागमन १९०६.फासुगमफासुगेण व, अच्चित्तेतर परित्तऽणतेणं। कर कहे-हम गए थे, परन्तु वह द्रव्य नहीं मिला। अथवा आहार-तहिणेतर, सिह इअरेण वा करणं ।। १. तद्दिवस-तदिवसं नाम प्रतिदिनम् । देशी शब्द तद्दिवसं अणुदिअहे (देशी ५।८)
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