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________________ पहला उद्देशक प्रासुक-अप्रासुक, सचित्त-अचित्त, परित्त-अनंत, आहार- यदि इस प्रकार करने पर भी रोग उपशांत नहीं होता है अनाहार, तद्दिवसक-परिवासित, सस्नेह-अस्नेह-ये ग्लान के तो वैद्य को पूछे। वैद्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें दो प्रकार करण अनुज्ञात हैं। के वैद्य ऋद्धिरहित होते हैं। शेष छह प्रकार के वैद्य ऋद्धि१९०७.विज्ज न चेव पुच्छह, जाणता बिंति तस्स उवदेसो। रहित और ऋद्धिसहित-दोनों होते हैं। ____ दट्ठ-पिलगाइएसु व, अजाणगा पुच्छए विज्जं॥ १९११.संविग्गमसंविग्गे, दिट्ठत्थे लिंगि सावए सण्णी। यदि ग्लान कहे-आप वैद्य को न पूछे, अपने आप अस्सण्णि इड्डि गइरागई य कुसलेण तेगिच्छं।। परिचर्या करें। यदि साधु चिकित्सा में कुशल हों तो वे कहते वैद्य के आठ प्रकार हैं-१. संविग्न, २. असंविग्न, हैं-हम जो कर रहे हैं वह वैद्य के उपदेश के अनुसार ही कर ३. लिंगी, ४. श्रावक, ५. संजी, ६. असंज्ञी-अनभिगृहीतरहे हैं। सर्प आदि द्वारा दष्ट, फोड़े-फुसी की चिकित्सा के मिथ्यादृष्टि, ७. अभिगृहीतमिथ्यादृष्टि, ८. परतीर्थिक। जानकार हों तो मुनि स्वयं चिकित्सा करें और यदि जानकर दृष्टार्थ का अर्थ है-गीतार्थ। संविग्न, असंविग्न, लिंगी, न हों तो वैद्य को पूछे। श्रावक तथा संज्ञी-ये गीतार्थ भी होते हैं और अगीतार्थ भी। १९०८.किह उप्पन्नो गिलाणो, अट्ठम उण्होदगाइया वुड्डी। शेष तीन नियमतः अगीतार्थ ही होते हैं। संविग्न-असंविग्न-ये ___किंचि बहु भागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो॥ ऋद्धिमान् नहीं होते। शेष ऋद्धिमान् और अऋद्धिमान्-दोनों शिष्य ने आचार्य से पूछा-ग्लान होने का हेतु क्या है? होते हैं। गइरागइ-ऋद्धिमान् वैद्यों की गति-आगति में महान् आचार्य कहते हैं-रोग और आतंक से ग्लानत्व उत्पन्न होता अधिकरण होता है। सभी वैद्यों को छोड़कर कुशल वैद्य से है। यदि ज्वर आदि रोग हो तो जघन्यतः अष्टम-तेला चिकित्सा करानी चाहिए। कराना चाहिए। रोग से मुक्ति पाने के लिए उष्णोदक आदि १९१२.संविग्गेतर लिंगी, वइ अवइ अणागाढ आगाढे। की वृद्धि करनी चाहिए। यदि रोगी उपवास करने में समर्थ न परउत्थिय अट्ठमए, इड्डी गइरागई कुसले॥ हो तो उष्ण पानी में थोड़े मर्दित अथवा अमर्दित चावल डाल दूसरे आचार्य की परंपरा के अनुसार आठ प्रकार के वैद्य कर एक दिन या सात दिन तक देने चाहिए। फिर 'किंचि' ये हैंअर्थात् उल्लण-उष्णपानी में थोड़ा मीठा दही डालकर दूसरे १. संविग्न ५. अवती-अविरतसम्यग्दृष्टि सप्ताह तक या दूसरे दिन देना चाहिए। फिर 'बहू' अर्थात् २. असंविग्न ६. अनागाढ़-अनभिगृहीतदर्शनी बहुत मधुरोल्वण उष्णपानी में डालकर तीसरे सप्ताह या ७. आगाढ़-अभिगृहीतमिथ्यादर्शन तीसरे दिन देना चाहिए। तदनन्तर 'भागि'-चौथे सप्ताह में या ४. व्रती ८. परयूथिक-शाक्य, परिव्राजक आदि। चौथे दिन तीन भाग मधुरोल्वण और दो भाग उष्ण जल, ऋद्धि, गइरागइ तथा कुशल-इनकी व्याख्या पूर्व 'अद्धे'-पांचवे सप्ताह में या पांचवे दिन आधा भाग श्लोकवत् जान लेनी चाहिए। मधुरोल्वण और आधा भाग उष्णजल, 'ओमे'-छठे सप्ताह १९१३.वोच्चत्थे चउलहुगा,अगीयत्थे चउरो मासऽणुग्घाया। या छठे दिन तीन भाग मधुरोल्वण और एक भाग उष्णोदक, चउरो य अणुग्घाया, अकुसले कुसलेण करणं तु॥ "जुत्ते'-सातवें सप्ताह या सातवें दिन थोड़ा उष्णोदक और संविग्न गीतार्थ वैद्य को छोड़कर यदि असंविग्न सारा मधुरोल्वण दिया जाता है। उसके पश्चात् अवगाहिम अगीतार्थ वैद्य से चिकित्सा कराता है-इस प्रकार चिकित्सा आदि का पूरा परिहार करता है। कराने में व्यत्यय करता है तो उस चतुर्लघु का प्रायश्चित्त १९०९.जाव न मुक्को ता अणसणं तु मुक्के वि ऊ अभत्तट्ठो। आता है। गीतार्थ को छोड़कर अगीतार्थ से चिकित्सा असहुस्स अट्ठ छटुं, नाऊण रुयं व जं जोगं॥ कराने पर तथा कुशल वैद्य को छोड़कर अकुशल वैद्य से जब तक ज्वर आदि से मुक्त नहीं होता तब तक चिकित्सा कराने पर चार-चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त अनशन-अभक्तार्थ करे। मुक्त होने पर एक दिन अभक्तार्थ करे। आता है। यदि वह लंबे समय तक अभक्तार्थ करने में समर्थ न हो तो एक १९१४.चोयगपुच्छा गमणे, पमाण उवगरण सउण वावारे। बार अष्टम-तेला या षष्ठ-बेला करे। रोग को जानकर, उसके संगारो य गिहीणं, उवएसो चेव तुलणा य॥ उपशमन के लिए जो योग्य उपाय हो वह करे। शिष्य की पृच्छा, गमन, प्रमाण, उपकरण, शकुन, १९१०.एवं पि कीरमाणे, विज्ज पुच्छे अठायमाणम्मि। व्यापार, संगार-संकेत गृहस्थों के उपदेश और तुलना। विज्जाण अट्ठगं दो, अणिड्डि इड्डी अणिड्डियरे॥ (विस्तृत अर्थ अगली गाथाओं में) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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