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१९१५. पाहुडियति य एगो नेयब्वो जिलाणओ उ विज्जघरं । एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ (शिष्य पूछता है क्या ग्लान को वैद्य के पास ले जाना चाहिए अथवा वैद्य को ग्लान के पास लाना चाहिए ?) कोई एक कहता है- वैद्य को ग्लान के पास लाने पर प्राभृतिका - देनी होती है, इसलिए ग्लान को ही वैद्य के घर पर ले जाना चाहिए। इस प्रकार जो कहे उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
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१९१६. रह- हत्थि - जाण तुरए - अणुरंगाईहिं इंति कायवहो । आसण मट्टिय उदए, कुरुकुय सघरे उ परजोगो ॥ वैद्य के लिए की जाने वाली प्राभृतिका यह है- रथ, हाथी, यान-शिविका आदि, अश्व, अनुरंग गाड़ी आदि - वैद्य इन साधनों से रोगी मुनि के पास आता है तब पृथ्वीकाय आदि कायों का वध होता है । वैद्य को बैठने के लिए आसन देना होता है। वैद्य के परामर्श से रोगी के शरीर पर कुरुकुचमिट्टी का लेप आदि करने पर मिट्टी और उदक के जीवों का वध होता है स्वगृह में परयोग होता है अर्थात् परप्रयोग से सब कुछ हो जाता है, साधुओं के कोई अधिकरण नहीं होता। १९१७. लिंगत्थमाइयाणं, छण्हं वेज्जाण गम्मऊ मूलं ।
संविग्गमसंविग्गे, उवस्सगं चेव आज्जा ॥ लिंगस्थ आदि छह प्रकार के वैद्यों के घर पर ग्लान को ले जाना चाहिए। उन्हें उपाश्रय में नहीं बुलाना चाहिए । संविग्न और असंविग्न-इन दो प्रकार के वैद्यों को उपाश्रय में ही लाना चाहिए।
१९१८. वाता-ऽऽतवपरितावण,
मयपुच्छा सुष्ण किं सुसाणकुडी । सच्चैव य पाहुडिया,
उवस्सए फासूया सा उ ॥ रोगी वैद्य के घर ले जाते समय वायु से, आतप से परिताप का अनुभव करता है। रोगी को ले जाते हुए देखकर लोग पूछते हैं- 'क्या यह मृत है, जो इस प्रकार ले जा रहे हो?" रोगी रास्ते में मर गया वैध रोगी को मृत देखकर कहता है- क्या मेरा घर श्मशानकुटी है जो मरे हुए को यहां लाए हो ? वैद्य यह सोचकर स्नान आदि करता है कि मैंने शव का स्पर्श किया है अथवा गोबर के पानी का घर में छिड़काव करता है - इस सारी प्राभृतिका का निमित्त होता है। मुनि । उपाश्रय में प्रासुक पानी आदि से वह की जाती है, इसलिए कोई विराधना नहीं होती । १९१९.उग्गह-धारणकुसले, दक्खे परिणाम य पियधम्मे । तस्साणुमए
काल देस
अ
पेसिज्जा ॥
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बृहत्कल्पभाष्यम्
ग्लान के निमित्त वैद्य के पास भेजा जाने वाला व्यक्ति अवग्रह और धारणाकुशल हो, दक्ष, परिणामक, प्रियधर्मा, कालज्ञ और देशज्ञ होना चाहिए तथा वह ग्लान अथवा वैद्य द्वारा अनुमत होना चाहिए।
१९२०. एअगुणविष्यमुळे, पेसिंतस्स चउरो अणुग्धाया । यथेह य गमणं, गुरुगा य इमेहिं ठाणेहिं ॥ जो उपरोक्त गुणों से विप्रमुक्त हो, उसको वैद्य के पास मेजने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित है। वहां गीतार्थ मुनियों को जाना चाहिए। निम्नोक्त स्थानों के आचरण में चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वे ये हैं-१९२१. एक दुगं चउकं दंडो दूया सहेब नीहारी । किण्हे नीले मइले, चोल रय निसिज्ज मुहपत्ती ॥ यदि वैद्य के पास एक मुनि को भेजा जाता है तो वैद्य उसे यमदंड, दो को भेजा जाए तो यमदूत और यदि चार को भेजा जाता है तो शव को कंधा देने वाले मानता है। इतनों को भेजने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपकरण जैसे चोलपट्टक, रजोहरण, निषद्या, मुंहपत्ती आदि काले, नीले और मलिन हों और उनसे ग्लान को प्रावृत किया जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
१९२२. मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज्ज वडभे य
कासायवत्थ उच्चूलिया व कन्जं न साहति ॥ शरीर और वस्त्रों से मलिन, जीर्ण परिधान वाला व्यक्ति, तैल आदि से अभ्यंगित शरीर वाला, कुत्ते का वामपार्श्व से दक्षिण पार्श्व में जाना, कुब्ज और वामन व्यक्ति का सामने मिलना, काषायवस्त्रवाले तथा भस्मलित शरीर वालों का सामने मिलना इनसे प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। १९२३. नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसदो भिंगार छत्त चामर, एवमादी पसत्थाई ॥ नंदीसूर्य (बारह प्रकार के सूर्य वाद्यों का एक साथ बजना), पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द सुनाई देना, भृंगार, छत्र चामर आदि ये सारे प्रशस्त होते हैं। १९,२४. आवडणमाइएसुं चउरी मासा हवंतऽणुग्धाया।
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एवं ता वच्चंते, पत्ते य इमे भवे दोसा ॥ प्रस्थान करते हुए यदि आपतन - शिर आदि कहीं टकरा जाता है ( गिर पड़ना या स्खलित हो जाना, पीछे से कोई वस्त्र खींच कर पूछता है कहां जा रहे हो?') आदि अपशकुनों के होने पर भी जो जाता है उसे चार अनुदधात मास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । वैद्य के घर जाकर इन दोषों का परिहार करना चाहिए।
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