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पहला उद्देशक
१९९ १९२५.साड-ऽब्भंगण-उव्वलण
में भोजन आदि दें, अन्य वेला में नहीं। ग्लान के भाव के लोय-छारु-कुरुडे य छिंद-भिंदतो। अनुकूल ही सारे कार्य करने चाहिए। ग्लान को ऐसे स्थान में सुहआसण रोगविहिं,
स्थापित करना चाहिए जहां उसके इन्द्रियों के विषय अनिष्ट उवएसो वा वि आगमणं॥ न हो। अथवा दृप्त आदि मुनियों के लिए प्रतिलोम क्रिया घर में यदि वैद्य एक शाटक पहने हुए हो, तैल आदि से करनी चाहिए।' अभ्यंगन करा रहा हो, उद्वर्तन कर रहा हो, शिरो मुंडन १९३०.अपडिहणंता सोउं, कयजोगाऽलंभि तस्स किं देमो। आदि करा रहा हो, राख या उकरडी के पास बैठा हो, कुछ जहविभवा तेगिच्छा, जा लंभो ताव जूहति॥ छेदन, भेदन कर रहा हो उस समय उसे कुछ भी नहीं पूछना वैद्य के वचनों को सुनकर उनके अनुसार औषधि या पथ्य चाहिए। जब वैद्य सुखासन में बैठा हो, वैद्यशास्त्र पढ़ रहा हो की व्यवस्था करनी चाहिए। यदि प्रयत्न करने पर भी सारी अथवा किसी की चिकित्सा कर रहा हो अथवा वैद्य के पूछने वस्तुएं न मिले तो वैद्य को पूछना चाहिए कि हम ग्लान को पर बताए या वैद्य को ग्लान के समीप ले जाए।
क्या दें? वैद्यक शास्त्रों में भी कहा है-'यथाविभवा १९२६.पच्छाकडे य सन्नी, दंसणऽहाभद्द दाणसड्ढे य। चिकित्सा'-धन के अनुसार चिकित्सा होती है। जो कुछ
मिच्छद्दिट्टि संबंधिए अ परतित्थिए चेव॥ सहज प्राप्त हो मुनि उसे याचित लाते हैं। पश्चात्कृत मुनि-चारित्र से भ्रष्ट होकर गृहवास को १९३१.नियएहिं ओसहेहिं, कोइ भणेज्जा करेमऽहं किरियं। प्रतिपन्न मुनि, संज्ञी-अणुव्रती, दर्शन-अविरतसम्यग्दृष्टि, तस्सऽप्पणो य थाम, नाउं भावं च अणुमन्ना॥ यथाभद्रक-सम्यक्वरहित किन्तु निग्रंथों के प्रति आदरवान, ग्लान का कोई संबंधी वैद्य यह कहता है-मैं अपनी निजी दानश्राद्ध-दानरुचि, मिथ्यादृष्टि-अन्य साधु-संन्यासी, औषधियों से इसकी चिकित्सा करूंगा। ऐसी स्थिति में ग्लान संबंधी ग्लान के परिजन और परतीर्थिक-इनको संकेत देते सोचे कि क्या यह वैद्य मेरी औषधियों की पूर्ति करने में हुए कहना चाहिए-हम वैद्य के पास जा रहे हैं। आप वहां रहें। समर्थ होगा? क्या यह मेरा उत्क्रमण करना चाहता है अथवा और वैद्य जो कहे उसे स्वीकार करें।
मैं धृति से बलवान् हूं या नहीं? इन सारी स्थिति को तोलकर १९२७.वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च। वह उस चिकित्सा को मान्य करे।
आहार अग्गि-धिइबल, समुई च कहिंति जा जस्स॥ १९३२.जारिसयं गेलन्नं, जा य अवत्था उ वट्टए तस्स। वेद्य के पास पहुंच कर मुनि ग्लान की व्याधि, उसका
अद्दट्टण न सक्का, वोत्तुं तं वच्चिमो तत्थ। कारण, विकार, रोगोत्पत्ति का काल, ग्लान की अवस्था, मुनिगण! जिस प्रकार के ग्लान मुनि का तुमने वर्णन उसमें किस धातु की उत्कटता है, आहार कैसा है, इसकी किया है, उसकी अभी जो अवस्था है, उसको देखे बिना पाचक अग्नि इस प्रकार की है, इसका धृतिबल ऐसा है, किसी औषधि का निर्देश नहीं दिया जा सकता। इसलिए हमें इसकी प्रकृति यह है-ग्लान संबंधी ये सारी बातें वैद्य को वहां चलना चाहिए। बताएं।
१९३३.अब्भुट्ठाणे आसण, दायण भद्दे भती य आहारो। १९२८.कलमोदणो य खीरं, ससक्करं तूलियाइयं दव्वे। गिलाणस्स य आहारे, नेयव्वो आणुपुव्वीए॥
भूमिघरेट्टग खेत्ते, काले अमुगीइ वेलाए॥ वैद्य के प्रतिश्रय में आने पर जिस विधि का आचरण १९२९.इच्छाणुलोम भावे,न य तस्सऽहिया जहिं भवे विसया। किया जाता है उसकी द्वार गाथा यह है-अभ्युत्थान, आसन,
अहवण दित्तादीसुं, पडिलोमा जा जहिं किरिया॥ दर्शन, भद्र, भृति, आहार तथा वैद्य का वेतन, ग्लान का ग्लान आदि की सारी बातें सुनकर वैद्य कहता है इस आहार-इनका विस्तार क्रमशः कहा जा रहा है। ग्लान को कलमोदन तथा शर्करायुक्त दूध भोजन के रूप में १९३४.अब्भुट्ठाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा।
देना, तूलिका में ग्लान को सुलाना है। ये सारे द्रव्यसंबंधी मिच्छत्त रायमादी, विराहणा कुल गणे संघे॥ निर्देश हैं। क्षेत्रसंबंधी-इस ग्लान को भूमिगृह में अथवा पक्की वैद्य के आने पर यदि आचार्य उठते हैं तो चार ईंटों के घर में रखें। कालतः जैसे-इस ग्लान को अमुक वेला गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। १. जैसे दृप्तचित्त वाले मुनि का उन्माद अपमान आदि करने से शांत हो जाता है। क्षिप्तचित्त वाले की क्षिप्तता भी अपमान से नष्ट हो जाती है। यक्षाविष्ट
व्यक्ति का यथायोग्य सम्मानना और अपमानना से आवेश नष्ट हो जाता है। (वृ. पृ. ५६२) २. जूहंति-देशीपदमेतद् आनयन्ति इत्यर्थः।
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