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=बृहत्कल्पभाष्यम् राजा आदि मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाते हैं तथा वह आचार्य, पूरी करेंगे' जो इस कथन का प्रतिषेध करते हैं उनको चार कुल, गण और संघ की विराधना कर सकता है।
गुरुकमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। १९३५.अणब्भुट्ठाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा। यदि वहां पश्चात्कृत आदि न हों और वहां यदि कोई वैद्य का
मिच्छत्त सो व अन्नो, गिलाणमादीविराहणया॥ प्रतिषेध करता है कि 'हम आपको मज्जनादि नहीं दे पाएंगे'यदि आचार्य नहीं उठते हैं तो चार गुरुक का उसको भी चतुर्गुरुक और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। इससे वैद्य १९४१.जुत्तं सयं न दाउं, अन्ने दिते वि ऊ निवारिंति। मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा ग्लान आदि की न करिज्ज तस्स किरियं, अवप्पओगं व से दिज्जा। विराधना होती है।
वैद्य सोचता है-'ये मुनि निष्कंचन है। ये यदि कुछ भी न १९३६.गीयत्थे आणयणं, पुव्विं उद्वित्तु होइ अभिलावो। दें तो यह युक्त है, किन्तु जो दूसरे देते हों, उनको निवारित
गिलाणस्स दावणं धोवणं च चुन्नाइगंधे य॥ करना उपयुक्त नहीं है।' इस प्रकार वह वैद्य प्रद्विष्ट होकर वैद्य को लाने के लिए गीतार्थ मुनि जाएं। वैद्य के आने से उस ग्लान की चिकित्सा नहीं करता अथवा वह अपप्रयोग पूर्व ही आचार्य आसन से उठकर खड़े हो जाएं। आचार्य वैद्य करता है, जिससे ग्लान की अवस्था और अधिक खराब हो से बात करें। वैद्य को दिखाने से पूर्व ग्लान के शरीर और जाती है। उपकरणों को धोकर शुचीभूत कर, वहां यदि दुर्गंध हो तो १९४२.दाहामो त्ति य गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा। वहां कोई सुगंधित चूर्ण चारों ओर बिखेर देना चाहिए।
संका व सूयएहि, हिय नढे तेणए वा वि॥ १९३७. चउपादा तेगिच्छा, को भेसज्जाई दाहिई तुब्भं। यदि गृहस्थों के अभाव में साधु वैद्य को यह कहे कि 'हम
तहियं च पुव्वपत्ता, भणंति पच्छाकडादऽम्हे॥ तुमको सब कुछ देंगे' तो साधुओं को प्रायश्चित्त स्वरूप चिकित्सा चतुष्पादा होती है-रोगी, परिचारक, वैद्य और ___चार गुरुमास और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। तथा किसी भेषज। वैद्य रोगी के साथ आए व्यक्तियों को पूछता है-तुम गृहस्थ का हिरण्य-सुवर्ण नष्ट हो गया या उसका अपहरण लोगों में से ग्लान को योग्य औषधि कौन देगा? तब वहां कर लिया गया हो तो मुनियों पर ही शंका होती है कि आए हुए पश्चात्कृत आदि लोग कहते हैं हम देंगे।
संभवतः इन्होंने ने ही यह लिया हो? अथवा सूचक१९३८.कोई मज्जणगविहिं, सयणं आहार उवहि केवडिए। आरक्षिक राजा के पास शिकायत करते हैं कि ये श्रमण
गीयत्थेहि य जयणा, अजयण गुरुगा य आणाई॥ चोर हैं (क्योंकि इन्होंने वैद्य को स्वर्ण आदि देने का वादा कोई कोई वैद्य कहता है-मैं चिकित्सा करूंगा किन्तु किया है।) मुझे मज्जनगविधि-तैलाभ्यंगआदि प्रक्रियापूर्वक स्नान करने १९४३.पडिसेह अजयणाए, दोसा जयणा इमेहिं ठाणेहिं। की सुविधा तथा मेरे लिए शयन, भोजन, वस्त्र तथा रुपयों भिक्खण इड्डी बिइयपद रहिय जं भाणिहिसि जुत्तं॥ की व्यवस्था कौन करेगा? पश्चात्कृत व्यक्ति यह सब वैद्य को अयतनापूर्वक प्रतिषेध करने पर चार गुरुमास स्वीकार करे। उनके अभाव में गीतार्थ यतनापूर्वक सब का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। इन स्थानों स्वीकार कर लें। यदि अयतनापूर्वक निषेध या स्वीकार से यतना करनी चाहिए। वे वैद्य से कहे-हम भिक्षा करके किया जाता है तो चार गुरुकमास का प्रायश्चित्त तथा देंगे। हम धनवानों से लाकर देंगे। अपवादपद में हमें यदि आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं।
कभी स्वर्ण लाना पड़े तो उसमें से कुछ देंगे। 'रहित' अर्थात् १९३९.एयस्स नाम दाहिह, को मज्जणगाइ दाहिई मज्झं। पश्चात्कृत रहित होने पर ऐसे कहते हैं-वैद्य तुम जो कहते
ते चेव णं भणंती, जं इच्छसि अम्हे तं सव्वं॥ हो, उसकी पूर्ति हम यथाशक्ति करेंगे अथवा जैसे उपयुक्त इसी रोगी के नामोल्लेखपूर्वक जो-जो औषधियां हैं, वे होगा वैसा करेंगे।' सारी इन्हें दें। मुझे मज्जनविधि कौन देगा? तब वे पश्चात्कृत १९४४.अहिरण्णग त्थ भगवं! सक्खी ठावेह जे ममं देति। आदि कहते हैं तुम जो चाहोगे वह हम सब देंगे।
धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूतो।। १९४०.जं एत्थ अम्हे सव्वं, पडिसेहे गुरुग दोस आणादी। तब वैद्य कह सकता है-भगवन् ! आप अहिरण्यक हैं, ___एएसिं असईए, पडिसेहे गुरुग आणादी॥ अतः आप साक्षी की स्थापना करें, जिससे मैं आपसे न
जो यह कहते हैं कि 'हम आपकी सारी आवश्यकताएं मिलने पर उससे प्राप्त कर सकू। कोई व्यक्ति अत्यंत दुग्ध का १. केविडया त्ति रूपकाः। (वृ. पृ. ५६५)।
२. धंतं-ति देशीवचनात् अतिशयेन। (वृ. पृ. ५६६)
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