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________________ पहला उद्देशक आकांक्षी होने पर भी अधेनु के पास से कभी दूध प्राप्त नहीं कर सकता। १९४५. पच्छाकडाइ जयणा, दावणकज्जेण जा भणिय पुव्विं । सद्धा विभवविष्णा ति च्चिय इच्छंतना सक्खी ॥ वैद्य के इस प्रकार कहने पर जो पहले पश्चात्कृत द्वारा वैद्य को मज्जन आदि दिलाने के विषय की यतना कही गई है वही यहां गंतव्य है जो पश्चात्कृत आदि श्रद्धा और विभव से विहीन हैं, वे यदि चाहें तो साक्षी रूप में रखे जा सकते हैं। १९४६. पंचसयदाण- गहणे, पलाल खेलाण छड्डणं व जहा । सहसं व सयसहस्सं, कोडी रज्जं व अमुगं वा ॥ १९४७. एवं ता गिहवासे, आसी व हवाणि किं भणीहामो । जं तुब्भऽम्ह य जुत्तं तं उग्गाढम्मि काहामो ॥ ( यदि वे साक्षी बनना न चाहें तो कोई प्रव्रजित धनी मुनि यह कहे ) देखो, हम जब गृहवास में थे तब जैसे पलाल और श्लेष्म को फेंका जाता है, वैसे ही पांच सौ रुपयों का दान देना और पांच सौ रुपयों का अर्जन करना हमारे लिए साधारण काम था । इसी प्रकार हजार, लाख, करोड़, राज्य अथवा अमुक अनिर्दिष्ट संख्या तक द्रव्य दान देना और कमाना हमारे लिए सामान्य था । गृहवास में हमारे पास इतनी विभूति थी। अब हम अकिंचन हैं। क्या कहें ? फिर भी म्लान के स्वस्थ हो जाने पर तुम्हारे और हमारे लिए जो उपयुक्त होगा, वह हम करेंगे। ( यह स्वग्राम के वैद्य विषयक यतना है। आगे परग्राम से आने वाले वैद्य के विषय की यतना कही जा रही है ।) १९४८. पाहिज्जे नाणत्तं, बाहिं तु भईए एस चेव गमो । पच्छाकडाइएसुं, अरहिय रहिए उ जो भणिओ ॥ वैद्य विषयक पाथेय वैद्य को दिए जाने वाला यात्राव्यय, भोजनव्यय आदि, में नानात्व होता है, विशेष होता है। बहिर् ग्राम से आए हुए वैद्य के लिए वेतन आदि का यही गम है जो पश्चात्कृत से रहित होने या सहित होने से युक्त कहा गया है। १९४९. मज्जणगादिच्छंते, बाहिं अभिंतरे व अणुसी । धम्मकह - विज्ज- मंते, निमित्त तस्सऽट्ट अन्नो वा ॥ ग्रामान्तर से आने वाला वैद्य यदि मार्ग में स्नान करना चाहे या स्थान पर आकर स्नान करना चाहे तो उसकी व्यवस्था के पश्चात आदि व्यक्ति करें। वे न हों तो वैद्य को शिक्षा दें कि मुनि ऐसी व्यवस्थाएं कर नहीं सकते। यदि न माने तो धर्मकथा कहे। उससे भी बात न बने तो विद्या, मंत्र, निमित्त से उसको आवर्जित करना चाहिए। यदि वह भी न हो सके तो किसी अन्य व्यक्ति को तंत्र-मंत्र के द्वारा वश में करके वैद्य की मांगे पूरे कराए। Jain Education International २०१ १९५० तह से कहिंति जह होइ संजओ सन्नि दाणसहो वा । बहिया उ अण्हायंते, करिंति खुड्डा इमं अंतो ॥ मुनि धर्मकथा करें, जिससे वह वैद्य मुनि श्रावक, दानश्राद्ध या दानशीलश्रावक बने। ऐसा न हो तो बाहर स्नान करे, इस प्रकार प्रयत्न करे। यदि वह स्नान करने के लिए बाहर जाना न चाहे तो उसे यह कहते हुए प्रतिश्रय के अन्त ले जाए १९५१. उसिणे संसट्टे वा, भूमी-फलगाइ भिक्ख चड्डाई । अणुसठ्ठी धम्मकहा, विज्ज-निमित्ते य अंतो बहिं । उसे उष्ण, संसृष्ट (छाछ मिश्रित जल), अथवा अन्य प्रासुक जल स्नान करने के लिए प्रस्तुत करे उसके शयन की व्यवस्था भूमी, फलक पर करे उसे भोजन मिक्षा में प्राप्त द्रव्यों से चड्ड (कमढकमयपात्र) या कांस्यपात्र में कराए। यदि गांववैद्य या आगंतुकवैध रुपये आदि मांगे तो अनुशासन, धर्मकथा, विद्या, निमित्त आदि का प्रयोग करे। १९५२. तेल्लुव्वट्टण ण्हावण, खुड्डाऽसति वसभ अन्नलिंगेणं । पट्टदुगादी भूमी, अणिच्छि जा तूलि पल्लंके ॥ - क्षुल्लक मुनि उस वैद्य का तैलाभ्यंगन तथा उद्वर्तन कर प्रासुक पानी से स्नान कराए। यदि व न करा सकें तो गण के वृषभ अन्यलिंगी - गृहस्थ आदि से वैद्य को स्नान करवाए। यदि वैद्य सोना चाहे तो पट्टदुग - संस्तारकपट्ट और उत्तरपट्ट दोनों बिछाकर उसे सुलाए। यदि वह इस प्रकार सोना न चाहे तो अन्यान्य प्रकार कर उसे सुलाए और अन्त में पल्यंक और गादी पर सोना चाहे तो उसकी व्यवस्था करे । १९५३. समुदाणिओदणो मत्तओ वऽणिच्छंति वीसु तवणा वा । एवं पऽणिच्छमाणे, होइ अलंभे इमा जयणा ॥ भिक्षा में सामुदायिक ओदन प्राप्त होता है उसमें से पहले वैद्य को देना चाहिए। वह न चाहे तो पात्र को बदल कर अन्य पात्र में केवल उसके लिए ग्रहण करना चाहिए। वह भी न चाहे तो ओदन अलग और व्यंजन अलग ग्रहण कर देना चाहिए। वह ठंडा है ऐसा कहकर वह इन्कार करे तो उसे यतनापूर्वक तथा कर देना चाहिए। इस प्रकार भी न चाहे और द्रव्य न मिले तो यह यतना है । १९५४. तिगवच्छर तिग दुग, एगमणेगे य जोणिघाए अ संसट्टमसंसट्टे, फासुयमप्फासुए जयणा ॥ तीन वार्षिक तंदुक (तीन वर्षों में जिनकी योनी ध्वस्त हो जाती है, वे धान्य), तीन, दो एक, अनेक आदि वर्षों से विध्वस्तयोनि वाले धान्य तथा जिनकी योनि विध्वस्त कर दी गई हो वैसे धान्य तथा संसृष्ट, असंसृष्ट प्रासुक था For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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