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अप्रासुक पानक यतनापूर्वक ग्रहण करे (व्याख्या आगे की गाथाओं में ।)
१९५५. वक्तजीणितिच्छडएकछडणे वि होइ एस गमो । एमेव जोणिघाट, तिगाइ हतरेण रहिए वा ॥ जो धान्य त्रिच्छटित हों, दो या एक घटित हो व्युत्क्रान्तयोनिक हो, उन्हें ग्रहण करे। यही गम योनिघात विषयक धान्यों के प्रति है। अव्यक्तलिंग या पश्चात्कृत गृहस्थों से रहित होने पर प्रागुक्त यतना का अनुपालन करना चाहिए।
१९५६. पुव्वाउत्ते अवचुल्लि चुल्लि
सुक्ख घण मज्झसिर-मविछे।
पुव्वकय असइ दाणे,
ठवणा लिंगे य कल्लाणे ॥ उन धान्यों के उपस्कार की विधि
जो अवचुल्ली पहले से तपी हुई है, उस पर धान का उपस्कार करे उसके अभाव में मूल चुल्ली पर यदि वह पूर्व तम न मिले तो उसमें शुष्क, सघन, अशुषिर तथा अविद्ध (घुणों द्वारा अखादित) - इस प्रकार का इंधन, जो प्रमाणोपेत तथा पूर्वकृत हो, उसे ग्रहण करे। वैसा प्रमाणोपेत उपलब्ध न हो तो स्वयं उनको वैसा करे। वैद्य को रुपये भी दान में दे । प्रश्न होता है कैसे ? शैक्ष मुनि ने प्रब्रजित होते समय जो धन रखा था, उसका दान करे। लिंग धारण कर अर्थ का उपार्जन करे और फिर दे जो परिचारक रहे हैं उनको पांच-पांच कल्याणक दे।
१९५७. हत्थद्धमत्त दारुग,
निच्छल्लिय अघुणिया अहाकडगा ।
असई सयंकरणं,
अघट्टणोवक्खडमहाडं ॥
चुल्ली में डाले जाने वाले इंधन का परिमाण - आधा हाथ अर्थात् बारह अंगुल लंबा छालरहित, घुणों से अविद्ध तथा यथाकृत होना चाहिए। यदि यथाकृत प्राप्त न हो तो स्वयं उस प्रकार का इंधन करे। ओदन आदि उपस्कृत हो जाने पर अधजली लकड़ियों का घट्टन नहीं करना चाहिए। वे अग्नि के जीव अपनी आयुष्क के अनुसार स्वयं नष्ट हो जायेंगे। १९५८. कंजिय-चाउलउदए, उसिणे संसट्टमेतरे चेव ।
व्हाण - पियणाइपाणग, पादासइ वार दद्दरए ॥ वैद्य के द्वारा पानी मांगे जाने पर कांजिक अथवा चावलों का धावन अथवा गर्म पानी अथवा संसृष्टपानक अथवा संजीव जल अथवा कपुरवासित जल दे उसे स्नान, पान आदि के लिए ऐसा जल दे। वह जल पहले ही पात्र में
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बृहत्कल्पभाष्यम्
स्थापित कर देना चाहिए और उस पात्र के मुख को सघन कपड़े से बांध दे।
१९५९. चटुग सराव कंसिय, तंबक रयए सुवन्न मणिसेले। भोत्तुं स एव धोवइ, अणिच्छि किढि खुड्ड वसभा वा ॥ वैद्य को कमढक अथवा शराव अथवा कांस्य पात्र अथवा ताम्र या चांदी या स्वर्ण अथवा मणि शैलमय भाजन में भोजन कराए। वैद्य स्वयं उस भाजन को धोता है। यदि वह धोना न चाहे तो स्थविरा श्राविका या क्षुल्लक मुनि या वृषभ मुनि उसे धोए।
१९६०. पूयाणि वि मग्गह, जह विज्जो आउरस्स भोगी।
तह विज्जे पडिकम्मं, करिंति वसभा वि मुक्खट्टा ॥ जैसे भोगार्थी वैद्य रोगी के मवाद आदि का अपनयन करता है, वैसे ही मोक्षार्थी वृषभ भी वैध का परिकर्म करता है। १९६१.तेइच्छियस्स इच्छानुलोमगं जो न कुज्ज सह लाभे ।
अस्संजमस्स भीतो, अलस पमादी व गुरुगा से ॥ (शिष्य ने पूछा- असंयमी वैद्य का वैयावृत्त्य संयमी मुनि क्यों करें ?) चिकित्सा से लाभ होने पर भी जो चिकित्सक की इच्छा 'के अनुकूल असंयम से भीत होकर या आलस्य या प्रमादवश प्रतिकर्म नहीं करता उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १९६२.लोगविरुद्धं दुप्परिचओ उ कयपडिकिई जिणाणा य । अतरंतकारणेते, तदट्ठ ते चेव विज्जम्मि ॥ ग्लान का वैयावृत्य करने के ये कारण है-ग्लान का वैयावृत्त्य न करने पर वह प्रवृत्ति लोकविरुद्ध मानी जाती हैं, ग्लान के साथ का संबंध अपरित्याज्य होता है, उसकी वैयावृत्त्य करने पर प्रत्युपकार करने जैसा होता है, और जिनेश्वरदेव की आज्ञा का पालन करने जैसा होता है। ये ही कारण वैच के वैयावृत्य करने के पक्ष में है।
१९६३. एसेव गिलाणम्मि वि, गमो उ खलु होइ मज्जणाईओ । सविसेसो कायब्वो, लिंगविवेगेण परिहीणो ॥ मज्जन आदि का यही गम-प्रकार ग्लान के विषय में होता है । सविशेष अर्थात् भक्ति- बहुमान आदि विशेष से सहित वह लिंगविवेक से रहित रूप से सारा करना चाहिए। १९६४. को वोच्छिइ गेलने, दुविहं अणुअत्तणं निरवसेसं ।
जह जायइ सो निरुओ, तह कुज्जा एस संखेवो ॥ रोग होने पर जो दो प्रकार की अनुवर्त्तना है— ग्लानविषयक तथा वैद्यविषयक- उसकी संपूर्ण अवगति कौन देगा ? क्योंकि वह बहुत विस्तृत है इसलिए ग्लान जिस विधि से नीरोग हो, उस विधि को अपनाए। यह संक्षेप कथन है।
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