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पहला उद्देशक
१९६५. आगंतु पउण जायण, धम्मावण तत्थ कइयदिट्ठतो ।
पासादे कूवादी, वत्थुक्कुरुडे तहा ओही। ग्लान मुनि के स्वस्थ हो जाने पर आगंतुक (दूसरे गांव से आया हुआ) वैद्य यदि दक्षिणा मांगे तो उसे यह कहे हम निर्धन हैं। हमारा यह धर्म आपण है-धर्म के व्यवहरण का हट्ट है, यहां धन नहीं, धर्म का उपदेश ही मिलता है। उसको क्रयिक का दृष्टांत कहे- 'एक ग्राहक गंधी (गंध द्रव्यों का व्यापारी) की दुकान पर जाकर रुपयों से कुछ गंधद्रव्य खरीदे। कालान्तर में वह उसी दुकान पर गया और मद्य खरीदना चाहा। दुकानदार ने कहा- 'मेरी दुकान पर गंधद्रव्य ही मिलते हैं, मद्य नहीं।' इसी प्रकार हमारे यहां धर्म की बात ही मिलती है, धन नहीं इतने पर भी वैध न माने तो उसे प्रासाद, कूप आदि अथवा वास्तूत्कुरुट (खंडहर ) आदि में गड़े हुए निधान को अवधिज्ञानी आदि ज्ञानी पुरुषों से जानकर, वहां से धन लाकर दे।
१९६६. वत्थव्व पउण जायण, धम्मादाणं पुणो अणिच्छंते ।
स च्चेव होइ जयणा, रहिए पासायमाईया ॥ ग्लान के स्वस्थ हो जाने पर यदि वास्तव्य (उसी गांव का) वैद्य भी दक्षिणा की याचना करे तो उसे भी धर्म रूपी धन ही देने की बात कहे। बार-बार कहने पर भी वह न माने तो उसे पश्चात्कृत व्यक्तियों से धन दिलाए। उनके न होने पर पूर्व श्लोकोक्त प्रासाद आदि से द्रव्य प्राप्तकर उसे दे । १९६७. उवहिम्मि पडगसाङग, संवरणं वा वि अत्थुरणगं वा ।
दुगभेदादाहिंडणऽणुसट्ठि परलिंग हंसाई ॥ ( वास्तव्य और आगंतुक - दोनों प्रकार के वैद्य वस्त्रों की याचना करें तो उसकी विधि यह है - )
उपकरणों में पटशाटक पहनने का वस्त्र, संवरण- शरीर ढंकने का वस्त्र आस्तरण - बिछाने का वस्त्र-वैद्य इनकी याचना करे तो उसे अपनी निर्गुणता की बात कहे वह न माने तो दो साधुओं के साथ घूमकर उन वस्त्रों की प्राप्ति करे। यदि प्राप्त न हो तो अनुशिष्टि-धर्मकथा आदि से समझाए। वह न समझे तो परलिंग धारण कर हंस आदि के प्रयोग से उन वस्त्रों का उत्पादन कर वैद्य को दे । १९६८. बिइयपदे कालगए, देसुद्वाणे व बोहिगाईसु ।
असिवाई असईइ व ववहारऽपमाण अदसाई ॥ द्वितीयपद में ग्लान के अथवा वैद्य के कालगत हो जाने पर वस्त्र आदि न दे। अथवा देश के उजड़ जाने पर, म्लेच्छ आदि का आतंक होने पर अशिव, दुर्भिक्ष आदि होने पर,
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वस्त्रों का अभाव होने पर वैद्य को वस्त्र न वे वह वैद्य यदि उसके लिए न्यायालय में जाए तो उसे जीत ले। अथवा न्यायालय से वस्त्र देने का आदेश हो तो प्रमाणहीन या बिना किनारी के वस्त्र उसे देने का प्रयत्न करे। १९६९. कवगमावी तंबे, रुप्पे पीते
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तहेव केवडिए । हिंडण अणुसद्वादी, पृहयलिंगे तिविह भेदो ॥ वैद्य यदि रुपये आदि मांगे तो उसकी विधि यह है-तब मुनि कौड़ियों के सिक्के, तांबे, चांदी या स्वर्ण के सिक्के अथवा 'केतर' नाम का नाणक की याचना से प्राप्त कर उसे दे। इनको प्राप्त करने के लिए दो साधुओं के समूह में घूमे। प्राप्त न होने पर वैद्य को अनुशिष्टि-धर्म कथा से समझाए । न समझने पर उस क्षेत्र में जो अर्चित लिंग हो, उसे धारण कर अर्थजात का उत्पादन करे। लिंग के तीन प्रकार हैं- स्वलिंग, गृहीलिंग तथा कुलिंग ।
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१९७०. विश्यपदे कालगए, देसुद्वाणे व बोहियादीसु असिवादी असईइ व, ववहारऽहिरण्णगा समणा ॥ अपवादपद में ग्लान या वैद्य के कालगत हो जाने पर, बोधिक आदि के भय से देश के उजड़ जाने पर, अशिव आदि के कारण अर्थजात सर्वथा अप्राप्त होने पर वैद्य को अर्थजात न दे। वैद्य यदि उसके लिए व्यवहार करे-न्यायालय मैं जाए तो कहे श्रमण सर्वथा अहिरण्यक होते हैं, यह सर्वत्र विदित है।
१९७१.पउणम्मि य पच्छित्तं दिज्जइ कल्लाणगं दुवेहं पि ।
वूढे पायच्छिते, पविसंती मंडलिं दो वि॥ ग्लान के नीरोग हो जाने पर ग्लान और प्रतिचारक दोनों को 'कल्याणक' का प्रायश्चित्त दिया जाता है। (ग्लान को पांच कल्याणक और प्रतिचारक को एक कल्याणक) प्रायश्चित्त को वहन कर लेने के पश्चात् दोनों-ग्लान और प्रतिचारक मुनियों की भोजन आदि मंडली में प्रवेश पा सकते हैं।
१९७२. अणुयत्तणा उ एसा, दव्वे विज्जे व वन्निया दुविहा
इत्तो चालणदारं, वुच्छं संकामणं चुभओ ॥ ग्लान के प्रायोग्य द्रव्यविषयक तथा वैद्यविषयक इन दो प्रकार की अनुवर्त्तना का वर्णन किया जा चुका है। अब आगे चालनाद्वार और संक्रमणद्वार को द्रव्य और वैद्य इन दो विषयों में कहूंगा।
१९७३. विज्जस्स व दव्वस्स व, अट्ठा इच्छंते होइ उक्खेवो ।
पंथो य पुव्वदिट्टो, आरक्खिओ पुष्वभणिओ उ ॥ यदि ग्लान वैद्य के लिए या औषध आदि द्रव्य के लिए
१. ताम्रमय नाणक-काकिणी दक्षिणापथ में, रूप्यमय नाणक द्रम्म भिल्लमाले, सुवर्णमय नाणक दीनार, पूर्वदेश में, केतर नामक नाणक पूर्व देश में ।
(वृ. पृ. ५७३, ५७४)
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