SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ =बृहत्कल्पभाष्यम् ग्रामान्तर जाना चाहे तो उसका उत्क्षेप अर्थात् चालना करनी ग्राम में ले जाकर उसकी समस्त प्रयत्नपूर्वक परिचर्या करनी चाहिए। रात्री में जाना हो तो मार्ग का निरीक्षण पहले ही कर चाहिए। लेना चाहिए। तथा आरक्षिकों को पहले ही सूचित कर देना १९७९.सो निज्जई गिलाणो, अंतर सम्मेलणा य संछोभो। चाहिए। (कि हम ग्लान को लेकर रात्री में गमन करेंगे। आम नेऊण अन्नगाम, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ चोर आदि की आशंका न करें।) जो ग्लान नगर से ग्राम में ले जाया जा रहा है और जो १९७४.चउपाया तेगिच्छा, ग्लान ग्राम से नगर की ओर आ रहा है, दोनों का बीच में इह विन्जा नत्थि न वि य दव्वाइं। सम्मेलन हो रहा हो तो परस्पर वंदना-व्यवहार कर दोनों का अमुगत्थ अत्थि दोन्नि वि, 'संछोभ-संक्रामण करते हैं (नगरवासी ग्रामीण ग्लान का और जइ इच्छसि तत्थ वच्चामो॥ ग्रामीण लोग नगर के ग्लान का)। ग्लान को अन्य ग्राम में परिचारक ग्लान को कहे-चिकित्सा चतुष्पादा होती है। संक्रमित कर उसकी सर्वप्रयत्नपूर्वक परिचर्या करनी चाहिए। इस क्षेत्र में न वैद्य है और न औषधद्रव्य। अमुक क्षेत्र में दोनों १९८०.जारिस दव्वे इच्छह, अम्हे मुत्तूण ते न लब्भिहिह। हैं। यदि तुम चाहो तो वहां चलें। __ इयरे वि भणंतेवं, नियत्तिमो नेह अतरते॥ १९७५.किं काहिइ में विज्जो, भत्ताइ अकारयं इहं मझं। जब दोनों ओर के परिचारक मिलते हैं तब वे एक दूसरे तुब्भे वि किलेसेमि य, अमुगत्थ महं हरह खिप्पं॥ से कहते हैं-नगरवासी ग्रामवासियों को कहते हैं-ग्लान के ग्लान परिचारकों को उत्तर देता है-आर्यो! मेरे विषय में लिए जैसे तिक्त, कटु आदि द्रव्य आप चाहते हैं, वैसे वैद्य क्या करेगा? यहां मेरे लिए भक्त आदि अकारक हैं। मैं द्रव्य हमारे बिना आपको नहीं मिलेंगे। ग्रामवासी नगरआप सब को भी उसी कारण से क्लेश दे रहा हूं। आप मुझे वासियों को कहते हैं-ग्लान के लिए दूध आदि द्रव्य हमारे शीघ्र ही अमुक क्षेत्र में ले जाएं जहां मेरे लिए भक्त आदि बिना आपको नहीं मिलेंगे। तब दोनों ओर के परिचारक कारक हो। परस्पर कहते हैं यदि ऐसा है तो हम निवर्तित होते १९७६.साणुप्पगभिक्खट्ठा, खीणे दुद्धाइयाण वा अट्ठा। हैं संक्रामणा करते हैं-तुम हमारे ग्लान को और हम तुम्हारे अभिंतरेतरा पुण, गोरससिंभुदय-पित्तट्ठा॥ ग्लान को ले जाते हैं क्योंकि दोनों उन-उन द्रव्यों के बिना सानुप्रगभिक्षा' के निमित्त ग्लान को अन्य ग्राम में ले जाते रह नहीं सकते। हैं। अथवा जहां दूध आदि की प्राप्ति दुर्लभ हो गई हो वहां से १९८१.देवा हुणे पसन्ना, जं मुक्का तस्स णे कयंतस्स। आभ्यन्तर अर्थात् नगर के वास्तव्य साधु ग्लान को ग्रामान्तर सो हु अइतिक्खरोसो, अहिगं वावारणासीलो॥ ले जाते हैं। और इतर अर्थात् ग्रामीण ग्लान परिचायक मुनि १९८२.तेणेव साइया मो, एयस्स वि जीवियम्मि संदेहो। ग्लान को दूध आदि से कफ कुपित हो गया हो अथवा किसी पउणो वि न एसऽम्हं, ते वि करिज्जा न व करिज्जा। कारण से पित्त उग्र हो गया हो तो उनके उपशमन के लिए (परस्पर संक्रामणा करके न ऐसा चिंतन करे और न ऐसे गांव से ग्लान को नगर में ले जाते हैं। कहे-) 'देवता हम पर प्रसन्न हुए हैं कि हम इस कृतान्तरूपी' १९७७.परिहीणं तं दव्वं, चमढिज्जंतं तु अन्नमन्नेहि।। ग्लान से मुक्त हो गए। वह अत्यंत क्रोधी, अत्यधिक कार्यों में कालाइक्कतेण य, वाही परिवडिओ तस्स॥ नियुक्त करने वाला है, उसके द्वारा ही हम खिन्न होते रहे हैं, १९७८.उक्खिप्पऊ गिलाणो, अन्नं गामं वयं तु नेहामो। इसकी हम परिचर्या करें परन्तु इसके जीवित रहने में भी नेऊण अन्नगाम, सव्वपयत्तेण कायव्वं॥ संदेह है, यह ग्लान नीरोग होने पर भी हमारा नहीं होगा, यह नगर में जो स्थापनाकुल आदि होते हैं वे यदि अन्यान्य हमारी परिचर्या करेगा अथवा नहीं, इसलिए हम भी इसकी ग्लान संघाटकों द्वारा बार-बार उनमें द्रव्यों को लाने के लिए परिचर्या क्यों करें? जाने पर परेशान हो गए हों तथा ग्लान-प्रायोग्य द्रव्यों की १९८३.जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। उनमें क्षीणता हो गई हो तथा अन्यत्र द्रव्यों की प्राप्ति में आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा। कालातिक्रांत होने पर ग्लान की व्याधि बढ़ती हो तो वे आचार्य यदि ऐसे सोचने या कहने वालों की किसी परस्पर विचार-विमर्श करते हैं कि ग्लान का उत्क्षेप कर हम प्रमादवश उपेक्षा करते हैं तो उनको पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा का उसे अन्य ग्राम में ले जायेंगे। यह विचार कर ग्लान को अन्य प्रायाश्चित्त-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। १. सानुप्रगभिक्षा अर्थात् प्रत्यूषवेला में प्राप्त होने वाली भिक्षा। २. कृत्तान्त का अर्थ है-कृतघ्न अथवा यमराज। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy