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पहला उद्देशक
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१९८४.उवेहऽप्पत्तिय परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए।
चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च॥ ग्लान की उपेक्षा करने पर आचार्य आदि को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा ग्लान में अप्रीति उत्पन्न होती है, उसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास, अनागाढ़ परिताप होने पर चतुर्लधु, आगाढ़ परिताप में चतुर्गुरु, महान् दुःख होने पर षडलघु, मूर्छा होने पर षड्गुरु, कृच्छ्रप्राण होने पर छेद, कृच्छ्रोच्छ्रास होने पर मूल, समवहत होने पर अनवस्थाप्य तथा कालगत हो जाने पर पारांचिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १९८५.उवेहोभासण परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए।
चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च॥ यदि ग्लान स्वयं जाकर गृहस्थों के सामने अपनी चिकित्सा की निन्दा करता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त
आता है तथा परितापन आदि में पूर्वोक्त श्लोक में कथित प्रायश्चित्त आता है। १९८६.उवेहोभासण ठवणे,
परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु गुरु,
छेदो मूलं तह दुगं च॥ ग्लान की उपेक्षा करने पर वह स्वयं चिकित्सा की निंदा कर भक्त-पान-औषध आदि लाकर उनकी स्थापना (संग्रह) करता है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। उस पर्युषित अन्न-पान के भोजन से परितापन आदि होते हैं तो प्रायश्चित्त गाथा १९८४ वत्। १९८७.उवेहोभासण करणे,
परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च्च लहु-गुरु,
छेदो मूलं तह दुगं च। उपेक्षित ग्लान यदि अवभाषण कर स्वयं चिकित्सा करता है (अथवा गृहस्थों से करवाता है) तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है तथा परितापन आदि होने पर गाथा १९८४ वत् परिचारक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। १९८८.वेहाणस ओहाणे सलिंगपडिसेवणं निवारिते।
गुरुगा अनिवारिते, चरिमं मूल च जं जत्थ॥ ग्लान की देखभाल न होने पर वह यदि वैहायस मरण से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो पारांचिक प्रायश्चित्त, अवधावन करने पर मूल, अपने स्वलिंग में रहकर यदि प्रतिसेवना करता है तो चतुर्गुरु, प्रतिसेवना से निवारित करने पर भी चतुर्गुरु तथा अनिवारित करने पर भी तत् तत् संबंधी प्रायश्चित्त आता है।
१९८९.संविग्गा गीयत्थाऽसंविग्गा खलु तहेव गीयत्था।
संविग्गमसंविग्गा, नवरं पुण ते अगीयत्था। १९९० संविग्ग संजईओ, गीयत्था खलु तहेवऽगीयत्था।
गीयत्थ अगीयत्था, नवरं पुण ता असंविग्गा। संयत चार प्रकार के हैं१. संविग्न गीतार्थ
३. संविग्न अगीतार्थ २. असंविग्न गीतार्थ ४. असंविग्न अगीतार्थ। इसी प्रकार संयतियों के भी चार प्रकार हैं। १९९१.चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य।
छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची। इन आठ स्थानों में ग्लान का परित्याग करने पर निम्नोक्त प्रायश्चित्त है
प्रथम स्थान चतुर्लघु, दूसरा स्थान चतुर्गुरु, तीसरा स्थान षड्लघु, चौथा स्थान षड्गुरु, पांचवां स्थान छेद, छठा स्थान मूल, सातवां स्थान अनवस्थाप्य और आठवां स्थान पारांचिक। १९९२.संविग्ग नीयवासी, कुसील ओसन्न तह य पासत्था।
संसत्ता विंठाया, अहछंदा चेव अट्ठमगा।। १९९३.चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य।
छेदो मूलं च तहा, अणवट्ठप्पो य पारंची।। ये आठ स्थान और हैं-(१) संविग्न (२) नित्यवासी (३) कुशील (४) अवसन्न (५) पार्श्वस्थ (६) संसक्त (७) वैण्ठक (८) यथाच्छंद।
इनका प्रायश्चित्त क्रमशः इस प्रकार है-(१) चतुर्लघु (२) चतुर्गुरु (३) षड्लघु (४) षड्गुरु (५) छेद (६) मूल (७) अनवस्थाप्य (८) पारांचिक। १९९४.संविग्गा सिज्जातर, सावग तह दंसणे अहाभहे।
दाणे सड्डी परतित्थिगे य परतित्थिगी चेव।। १९९५. चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य।
छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची। अथवा आठ स्थान ये हैं तथा प्रायश्चित्त यह है(१) संविग्न (२) शय्यातर (३) श्रावक (४) दर्शनअविरति सम्यग्दृष्टि, (५) यथाभद्रक (६) दानश्राद्ध (७) परतीर्थिक (८) परतीर्थिकी। इन स्थानों में ग्लान का परित्याग करने पर क्रमशः गा. १९९३वे की भांति प्रायश्चित्त। १९९६.उवस्सय निवेसण साही, गाममज्झे य गामदारेय।
उज्जाणे सोमाए, सीममइक्कामइत्ताणं। १९९७. चउरो लहुगा गुरुगा,छम्मासा होति लहुगा गुरुगा य। __ छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची। आचार्य आदि क्षेत्रान्तर जाते हुए ग्लान को यदि उपाश्रय
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