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बृहत्कल्पभाष्यम्
शेष दो मुनि सहयोगी रहे। कुल मिलाकर ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है, प्राचीन परंपराओं का दिग्दर्शक यह ग्रंथ अभूतपूर्व है। इसमें स्वाध्याय के लिए बहुत सामग्री है।
साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी को मैंने भूमिका के लिए निवेदन किया और आपने मेरे पर अनुग्रह कर मेरे निवेदन को स्वीकार कर लिया। उस समय आप चिकित्स्य थीं और मनोयोगपूर्वक स्वास्थ्य लाभ कर रही थीं। उसके पश्चात् विश्राम हेतु भुवाणा (उदयपुर) में स्थित 'महिला अहिंसा प्रशिक्षण केन्द्र' में पधार गईं। श्रावण
और भाद्रपद मास विश्राम करने हेतु बीत गये। तदनन्तर विद्वत्तापूर्ण तथा पग-पग पर बहुश्रुतता का बोध देने वाली भूमिका का लेखन किया। आप केवल जैनवाङ्मय की विदुषी ही नहीं हैं अन्यान्य दार्शनिक ग्रंथों का भी तलस्पर्शी अध्ययन कर उनके उपनिषद्भूत तत्त्वों को आत्मसात् किया है। आपकी लेखनी विषय के अनुरूप नानारूप वाली होती है। जहां प्रसादगुण की अपेक्षा हो वहां प्रसादधर्मा और जहां दार्शनिक तत्त्वचर्चा का प्रसंग हो वहां दार्शनिक तत्त्वावगाहिनी होकर यह मन्दाकिनी आगे बढ़ती है।
आपके इस अनुग्रह के प्रति मैं किन शब्दों में आभार व्यक्त करूं। आपका सदा से मुझे अनुग्रह प्राप्त होता रहा है, आज है और आगे भी रहेगा। मेरी यही मंगलकामना है कि आप अपनी वाग्मिता तथा लेखनी की प्रवहमानता को विराम न दें और गुरु के इस वरदान को संजोकर रखें। मुनिद्वय
मुनि राजेन्द्रकुमारजी और मैं अनेक वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। उनकी कर्मठता, सजगता और कार्य में लगे रहने की तमन्ना प्रशंसनीय है। वे मुख्यतः संस्कृत व्याकरण के विभिन्न अंगों के संपादन में लगे हुए हैं। उन्होंने उस कार्य में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर अनेक ग्रंथों का संपादन किया है। वे अद्भूत खोजी, परिश्रमी और कार्य के प्रति प्रामाणिक हैं। उनकी कार्यक्षमता की चर्चा आचार्यप्रवर बहुधा करते हैं, क्योंकि वे सदा ही आचार्यश्री की सेवा में संलग्न रहे हैं और आज भी हैं। वे प्रथम दृष्ट्या 'गुरुसेवास्ति मामकीनं जीवनमंत्रं' यह मानकर सेवा की संलग्नता बनाए रखते हैं। जब अन्यत्र विहार होता है, गुरु सेवा छूट जाती है, तब उनकी छटपटाहट देखने योग्य होती है। 'सेवाधर्मः परमगहनः' इसको आत्मसात् कर 'सेवाधर्मः परमसुखदः परमसहजः'-ऐसा मानकर सेवाकार्य में संलग्न रहते हैं। वे निष्कामसेवी और निर्जराप्रेक्षी हैं।
वे आजकल मेरी रुग्णावस्था के कारण मेरे उपचार में संलग्न हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ के कार्य में लगने से पूर्व उन्होंने अभी-अभी 'सिन्दूरप्रकरण' काव्य का सांगोपांग संपादन, अनुवाद कर हजारों व्यक्तियों को लाभान्वित किया है। इस कार्य से मुक्त होने के पश्चात् तथा व्याकरण के कार्य को पुनः प्रारंभ न करने के कारण वे बृहद्कल्पभाष्य के कार्य में लगे। ग्रंथ की परिसंपन्नता में दो विषय विशेष हैं। गाथानुक्रम और विषयानुक्रम। उन्होंने दोनों कार्य अपने हाथ में लिए और सर्वप्रथम गाथानुक्रम के परिशिष्ट को करने में लगे। यद्यपि मुद्रित इस ग्रंथ में गाथानुक्रम है। हमने पहले उसका निरीक्षण किया। हमें लगा कि उसमें पाठगत और अनुक्रमगत अनेक त्रुटियां हैं। सबसे पहले मुनिजी ने पाठ की अशुद्धियों का परिमार्जन किया और फिर अनुक्रम को तैयार करने का उपक्रम प्रारंभ किया। एक मास की अवधि में पहले परिशिष्ट का कार्य संपन्न हो गया। श्लोकों की गणना में दो गाथाएं न्यून आ रही थीं। इस न्यूनता ने उनको झकझोर डाला। उनकी खोज में फिर १०-१५ दिन लगे और उन गाथाओं की खोज कर उन्होंने परिशिष्ट को संपन्न किया।
दूसरे विषय में लगभग साढ़े छह हजार गाथाओं का विषय-सूचन करना था। समय लगा और चातुर्मास के प्रारंभ काल में वह संपन्न हो गया।
ये दोनों बहुत श्रमसाध्य थे। मुनिजी ने इनको पूरा कर मुझे अनुगृहीत किया है। वे साधुवादाह हैं। उनकी कर्मजाशक्ति वृद्धिंगत होती रहे, यही मंगलभावना है।
मुनि जितेन्द्रकुमारजी दीक्षाकाल से ही मेरे पास हैं। उनको दीक्षित हुए दस वर्ष हो गए। वे प्रारंभ से ही प्रतिभासंपन्न थे। यहां रहकर उन्होंने अपनी प्रतिभा को संवारा है, बढ़ाया है। वे प्रारंभ में विद्यार्थी बनकर आए
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